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Showing posts from July, 2020

तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे !

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कभी नहीं समझ पायी कि बचपन से ही मुझे संगीत से लगाव क्यों है ... बस जैसे मेरी दिनचर्या में शामिल है संगीत ...तभी तो कुदरत की हर शय में सुनाई देता है संगीत !  जब भी कोई खूबसूरत गीत सुना रेडियो पर तो लगा या तो मैं गा रही हूं किसी के लिए या कोई मेरे लिए गा रहा है। कोई रूमानी गीत बजता तो सारा समां रुमानियत से सराबोर हो जाता, कोई विरह गीत बजता तो ख़ुद-ब-ख़ुद आंखें नम हो जातीं, कोई नृत्य गीत बजता तो कदम ख़ुद ही थिरकने लगते । अब जब सोचती हूँ तो लगता है कुछ भी बेवज़ह नहीं था, बस एक ज़रिया था 'तुम' को महसूस करने का अपने आस-पास। जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता गया, ये अहसास और भी मुखर होता गया कि कोई कहीं है जो मुझसे जुड़ा है, जो मेरे लिए है, मेरे जैसा है और मुझे पूरा करता है ।             अपने ही ख्यालों में डूबी मैं जब कभी वो गीत गुनगुनाती तो अक्सर मन वहाँ ले जाता, जहाँ कुदरत की गोद में लेटे मैं 'तुम्हारी' आंखों में कितने ही प्रेम पत्र पढ़ लेती और उनके जवाब भी लिख देती अपनी उंगलियों से ... हर स्पर्श एक अलग हर्फ़ उकेरता और तुम उतनी ही आसानी से पढ़ भी लेते, उसमें छुपे कितने ही एहसास ... आख़िर ये हमार

वो अधूरा ख़्वाब

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"अरे ये अभी तक तैयार नहीं हुई वो लोग आने वाले होंगे, ज़रा जल्दी करो तुम लोग ..", हड़बड़ाहट में कोई महिला बोल कर उतनी ही तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गयी, जितनी तेज़ी से भीतर आयी थीं।         कौन है वो मेरी, जानी-पहचानी सी हैं फिर भी क्यों याद नहीं आ रहा ? मेरे आसपास शायद मेरी सहेलियां हैं या शायद मेरी ममेरी-चचेरी बहनें.. ओह मुझे क्यों नहीं याद इनके नाम ? बड़ा सा ये हवेली नुमा घर, बड़े-बड़े कमरे, गलियारे, बड़ी-बड़ी खिड़कियां और दूर तक फैली रेत ... ये कौन सी जगह है, किस शहर में हूँ मैं ? ये घर मेरा है, ये बड़ा सा कमरा भी ..सभी जाना पहचाना सा मगर फिर भी क्यों मैं ख़ुद को अजनबी सा महसूस कर रही हूं जैसे भटक गयी हूँ । तुम आने वाले हो, आज हमारी सगाई है, तुम्हें एक नज़र देखने को तरस गयी हूँ जैसे... कितना इंतज़ार करवाओगे, जल्दी से आ जाओ न ..        जाने क्यों लगता है तुम्हारे आ जाने से सब सही लगेगा, मेरी पहचान, मेरा घर, मेरे अपने ... तुम ही वो चाबी हो जो ये सारे सवालों के ताले खोल सकते हो । मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही है, हर गुज़रते पल के साथ, ये इंतज़ार क्यों खत्म नहीं होता ? सब एक-एक कर बाहर जा चुकी हैं औ

धीमी आंच

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उन्मुक्त बहा करते हैं अहसास अपने ही तटबंध गढ़ते हैं रोज़ कच्ची मिट्टी से  तोड़कर पुरानी वर्जनाएं .. इश्क़ के जुनून पर सवार  वो बेक़ाबू लहर, समेट लेती है अपने आग़ोश में  सिमट जाती हैं दूरियां  पल भर में .. तेज़ी से बढ़ते हैं कदम  गलबहियों के बीच  वो परिचित फिर भी नया सा स्पर्श  उमड़ते हैं जज़्बात गहराई में तलाशते हैं  कुछ और नए अहसास .. एक भरपूर समंदर है मेरे भीतर ... जितना तीव्र उतना ही गहन  ऊंचे उठते ज्वार जैसे ऊंचाई की नई परिभाषा गढ़ते  हर बार, हर पुराने अभिलेख को तोड़ते हुए.. सराबोर करते हैं मेरे तन-मन को मीठी और गुनगुनी छपकियों से मानो बुझा रहे हों वो अमिट प्यास प्रेम की  जो कुछ और बढ़ती जाती हैं  'तुम्हारे' लिए हर बार .. गीली नर्म रेत सहलाती है  मेरे तलवों को  तुम्हारे हमकदम चलते हुए जगाती है जुनून नस-नस में भर देती है बेचैनी कतरे-कतरे में उठती है सिहरन  मानो प्रत्याशित के लिए.. वो सिहरन की अनुभूति  न मरती है न धुमिल ही होती है  जैसे अग्नि बुझाने के बाद भी  बस धीमे-धीमे सुलगती है निरंतर राख में दबी आँच की तरह बस कुछ ऐसी ही क्षुधा है मेरी भी  तुम्हारे प्रेम के लिए, 'तुम्हारे' लि

हथेली में चांद

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जब प्यार धीरे से कहता है, " 'तुम' हो, यहीं कहीं हो !" एक जादू बुनता है चारों ओर  एक नई दुनिया जन्म लेती है  कहीं हमारे ही भीतर से, रोशनी और रंगों से सराबोर... ज़िन्दगी मुस्कुराती है गुनगुनाती है  और बन जाती है खूबसूरत ख़्वाब, एक इन्द्रिय आह्लाद ! शशश ... क्या सुन रहे हो हवा के परों पर  मंद-मंद थिरकती ये मीठी सी धुन ? जानती हूं तुम सुन सकते हो,  जैसे मैं सुन पा रही हूं.... मिलते हैं कदम बहकते हैं, थोड़ा लरज़ते हैं, थिरकते हैं प्रेम-धुन पर  और ज़िन्दगी हमेशा-हमेशा के लिए सिमट जाती है  बाहों के दरमियाँ ! ❤️ किरण

प्रेम-धुन

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जब प्यार धीरे से कहता है, " 'तुम' हो, यहीं कहीं हो !" एक जादू बुनता है चारों ओर  एक नई दुनिया जन्म लेती है  कहीं हमारे ही भीतर से, रोशनी और रंगों से सराबोर... ज़िन्दगी मुस्कुराती है गुनगुनाती है  और बन जाती है खूबसूरत ख़्वाब, एक इन्द्रिय आह्लाद ! शशश ... क्या सुन रहे हो हवा के परों पर  मंद-मंद थिरकती ये मीठी सी धुन ? जानती हूं तुम सुन सकते हो,  जैसे मैं सुन पा रही हूं.... मिलते हैं कदम बहकते हैं, थोड़ा लरज़ते हैं, थिरकते हैं प्रेम-धुन पर  और ज़िन्दगी हमेशा-हमेशा के लिए सिमट जाती है  बाहों के दरमियाँ ! ❤️ किरण

मीरा माधव (2)

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"कोई दो लोग इतने समान कैसे हो सकते ? पसंद, नापसंद, सोच, स्वभाव यहाँ तक कि ज़िन्दगी के अहम पड़ाव, हादसे और सफ़र भी ..." "जाने क्यों ऐसा लगता है कि हम एक दूसरे का इंतज़ार करते, एक दूसरे के सांचे में अनजाने ही ढलते गए और जब मिले तो कुछ अलग रहा ही नहीं पर फिर भी कुछ तो है जो हमें एक दूसरे की ओर खींचता है । क्योंकि समानताएं मिला तो सकती हैं पर आकर्षण हमेशा विपरीत से होता है .." "हाँ अलग भी तो हैं हम बहुत जैसे मुझे नींद में सुकून मिलता है तुम्हें रातों की आवारगी पसंद है, मुझे ज्यादा बातें नहीं पसंद और तुम चुप नहीं रहती.. मैं शर्म से कोसो दूर, तुम अब भी शर्मा कर शाम के रंग ओढ़ लेती हो पर जानता हूँ तुम्हें वो सब पसंद है जो मुझे बस कुछ वक़्त दो इश्क़ को, रंग लेगा तुम्हें भी अपने चटक रंगों में.. " "ओह ! अच्छा तो वो जो रातों को घंटों जाग कर मुझसे बतियाता रहा वो तुम्हारा भूत होगा ... सच तो ये है कि कुछ तुम में कम था , कुछ मुझमें, फिर हम मिले तो ढलने लगे एक दूसरे के अक्स में । कुछ तुम बदले, कुछ मैं .. सब अनजाने ही हुआ यहाँ तक कि हम खुद नहीं जान पाए किस तरह !&

कुछ तो बात है !

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कुछ तो बात है इन बूंदों में, अहसास नए हैं जागे । सावन की पहली बारिश में, भीगे-भीगे तुम हो, भीगे-भीगे हम हैं। कुछ तो बात है इन आँखों में, राज़ हैं कुछ तो गहरे से । दिलकश ख़्वाबों की ख़ुशबू में, महके-महके तुम हो, महके-महके हम हैं। कुछ तो बात है, तुम मुस्काए, रंग यूँ ही नहीं हैं बिखरे । खिले-खिले रंगों में लिपटे, लहके-लहके तुम हो, लहके-लहके हम हैं। कुछ तो बात है, साथ में हम हैं, मदहोशी है कैसी छायी। भीगी-भीगी इस बयार में, बहके-बहके तुम हो, बहके-बहके हम हैं। कुछ तो बात है, हर लम्हा है, जैसे ज़ीस्त हो नई-नई। साथ गुज़रते हर लम्हे में, डूबे-डूबे तुम हो, डूबे-डूबे हम हैं। ❤️ किरण🌹

साँझा कहानी

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जहाँ तक जाती है नज़र, ठहरती है जिस बीनाई* पर , वो साँझा है हमारी ! जिन ख़्वाबों को अक्सर ज़मीं दी है,  हमारे ख़यालों ने खुली आँखों में, वो साँझा हैं हमारे ! जो अहसास जीते हैं दिलों में, जिन्हें स्वर देती हैं धड़कनें, वो साँझा हैं हमारे ! जिन जज़्बातों से जुड़ता है मन, जिनमें बसर है जिंदगी की, वो साँझा हैं हमारे ! वो स्पर्श जिन्हें महसूस किया  जिस्म के पार अंतर्मन तक वो साँझा हैं हमारे ! कहाँ कुछ मुख़्तलिफ़** था, कि दो कहानियां लिख पाती क़लम, ये जो कहानी लिख रही हूं इन दिनों  वो साँझा है हमारी ! बिल्कुल वैसे ही जैसे तुम मेरे हो  और मैं तुम्हारी ! #सुन_रहे_हो_न_तुम *बीनाई - दृश्य , दृश्यावली  **मुख़्तलिफ़ - भिन्न, अलग

आवारा बदली

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हवा के पंखों पर सवार आवारा सी बदली हूँ मैं  अपने भीतर ज़ब्त किये अनगिनत मीठी बूंदों को  किसी प्रेम-धुन की प्रतीक्षा में ! जब पसरा हो अंधेरा और पुकारता है कोई एकाकी मन मेरा मन भी होता है नम और गिरती हैं ओस की बूंदें ! मेरे कानों तक नहीं पहुँचे कोई खुशी के तराने पर फिर भी गाती हूँ प्रेम गीत कि तुम्हारे आँसू अपना रास्ता भूल जाएं ! नहीं जानती मेरे नसीब में क्या है.. प्यार भरी बाहों की गर्माहट या फिर ताउम्र एक 'आवारा बदली' होना ! © विनीता किरण

वो हमसाया

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मेरी नज़रों को वो चेहरा अनजाना जकड़ रहा है। अपने तिलिस्म में मुझे, कोई मुझसा जकड़ रहा है। जज़्बा-ए-इश्क़, उस पर सुरूर उसकी छुअन का, मेरे जिस्म ओ' रूह को बेतहाशा जकड़ रहा है। उसी से वाबस्ता है हर अहसास ओ' सुखन मेरा, उसका ख़्याल मेरे लफ़्ज़ों को बारहा जकड़ रहा है । उसकी बातों में वक़्त तो मुसलसल गुज़रता गया,  दिल को मगर इक ठहरा सा लम्हा जकड़ रहा है। पहली मुलाकात का असर रब जाने क्या होगा, मीलों दूर बैठा वो, हर ख़्वाब मेरा जकड़ रहा है। इंतज़ार उसे भी है, मुझे भी, बेइंतहा मगर क्या करें,  कदम कभी दूरियां तो कभी कोरोना जकड़ रहा है । ज़ाया तो नहीं जाएगा नसीब का यूँ मिलाना 'किरण' हर नाउम्मीदी से इतर हमें ये भरोसा जकड़ रहा है। ©विनीता किरण