तुम इश्क़ हो !
वे तीन ख़ूबसूरत शब्द हमेशा खोखले से लगे मुझे, जो अनगिनत बार सुनकर भी एक अनगढ़ बांसुरी के अधूरे बिखरे से सुरों का आभास देते रहे ...कहने वाले की आंखों में न वह मासूमियत थी न कशिश उस इश्क़ की जो गाहे बगाहे मेरी डायरी के पन्नों को महकाता रहा, भिगोता रहा या फिर यूँ कहूँ कि मेरी सोच में डूबता उतरता रहा। एक दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ था भी नहीं शायद तब उसका अस्तित्त्व और इसीलिए यायावर सी मैं इश्क़ को तलाशती रही ...कभी किताबों में, कभी गीतों में, कभी ख़्यालों के रेशमी जाल में उलझते-सुलझते , कभी बेचैन रात की उनींदी आँखों में करवट लेते ख़्वाबों में । फिर एक दिन तुम्हें गढ़ लिया मैंने ... हाँ 'तुम' ही तो थे जो मेरे तन्हा सफ़र में साथ चलते रहे, भीड़ में अकेलेपन का वो एहसास तुम्हारे मुस्कुराकर देखते ही छूमंतर हो जाया करता, तुम्हारे साथ हँसते-बोलते वक़्त गुज़र ही जाता पर फिर बेवक़्त टूटी नींद जाने कब भर देती मेरे मन को अंधेरे की परछाईयों से जो सुब्ह होने तक डराती रहती मुझे । कहीं किसी किताब में पढ़ा था कभी कि एक वक़्त ऐसा भी आता है जब कोई ख़्वाहिश न रहे, मन एकदम शांत हो जाए, कुछ भी अधूरा न लगे....