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Showing posts from March, 2015

साँझ

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एक लंबा सफ़र कुछ पुरानी यादें, बमुश्किल जीवित बची कुछ ख्वाहिशें, भीगकर बोझिल हुए कुछ ख़्वाब, रिश्तों के अवशेष सहेजे आ पहुँची हूँ उस मोड़ पर जहाँ स्वयं को पाती हूँ  नितांत अकेली... सोचती हूँ , क्या ये अंतिम साँझ है या इस रात के झुरमुट के उस पार फिर उदय होगा भास्कर ? ©विनीता सुराना 'किरण'

अपूर्ण

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फुर्सत के इन लम्हों में जब कभी मिलती हूँ ''तुमसे" जाने कितने प्रश्न उमड़ने लगते हैं भीतर होड़ सी मच जाती है उनमें एक दूसरे से आगे निकलने की, आधा-अधूरा रहना किसे पसंद है आख़िर? एक उत्तर का साथ पाकर होना चाहते हैं पूर्ण सभी... मेरे और तुम्हारे बीच का पुल चरमराने लगता है डर जाती हूँ कहीं ढह न जाए और मेरे प्रश्न अधूरे ही  टुकड़ों में बिखर न जाएँ ..... कहीं तुम्हें मुझसे शिकायत तो नहीं कि इस दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में मैं समय नहीं दे पाती तुम्हें? तुम्हीं बताओ, अगर ले जाऊँ तुम्हें भी उस स्वार्थ के जंगल में तो क्या तुम खुश रह पाओगे, अपने अस्तित्त्व को खोकर उस भीड़ में वो सब देख पाओगे जो मैं हर दिन देखती हूँ  न चाहते हुए भी ... स्वार्थ की आँधी में सूखे पत्तों से बिखरते रिश्ते शीशे से चटकते दिल अमरबेल सी बढ़ती दीवारें सिसकते आँगन ठोकरों में मासूम चीखती जिंदा लाशें लुटते जज़्बात कुचली हुई कलियाँ उफ्फ्फ्फ़...... इतना दर्द कैसे सह पाओगे और अगर सह भी लिया तो क्या उस दर्द के साथ जिंदा रह पाओगे? इसीलिए तुम्हें महफूज़ छोड़ कर जाती हूँ अपने भीतर के आखिरी लॉकर में ताकि जब भी वापस लौटूँ तुम्हारे स्वा

चाँदनी

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कल चाँदनी की शादी है यानि इस घर में उसके जीवन का एक अध्याय कल पूर्ण हो जायेगा और मेरे परिवार में एक नया सदस्य जुड़ जायेगा, परन्तु जाने क्यूँ अब भी मुझे मेरा परिवार अधूरा लगता है | आँखों में नींद नहीं है और याद आ रहा है आज से करीब 24 वर्ष पहले रोहन की पहली बरसी का दिन, जो उसका जन्मदिन भी हुआ करता था ..... अपने जन्मदिन पर ही स्कूल से लौटते हुए स्कूल बस दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण हम असमय अपने इकलौते बेटे को खो बैठे थे | सुख हो या दुःख समय कभी नहीं ठहरता, तब भी नहीं ठहरा था, घर और जीवन दोनों सूने हो गए थे और दुर्भाग्य ये कि मैं दोबारा माँ नहीं बन सकती थी | रोहन की बरसी और जन्मदिन को मैं और रोनित एक चाइल्ड होम गए थे कुछ मिठाइयाँ और फल लेकर, प्रशासक ने सभी बच्चों को बाहर बगीचे में ही बुला लिया था | एक अजीब सी ख़ुशी उस दिन पहली बार महसूस हुई रोहन के जाने के बाद, जब उन बच्चों के चेहरे पर मुस्कराहट और अपने प्रति स्नेह दिखाई दिया | सभी बच्चे लगभग 2 से 8 वर्ष की उम्र के थे वहाँ, इसीलिए उनकी आँखों में कृतज्ञता नहीं बस प्यार था, निश्छल और निर्मल | तभी मेरी नज़र सबसे पीछे खड़ी एक छोटी सी लड़की पर पड़

सज़ा

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नहीं तुम्हें दोष नहीं दूंगी इस अलगाव के लिए, तुम्हारे अचानक लौट जाने के लिए, नहीं दे सकती तुम्हें बददुआ कोई प्रेम जो करती हूँ तुमसे, साथ चलने का फ़ैसला हम दोनों का था, प्रेम को अंधा कहते हों भले पर आँखें खुली थी मेरी जब तुम्हें चुना था, संग तुम्हारे वो ख़्वाब बुना था, जानती थी ये भी अगर किसी वजह से किसी एक को रास्ता बदलना पड़ा तो शायद टूटन मेरे हिस्से ज्यादा आएगी पर मेरे प्रेम ने बहुत हिम्मत दी मुझे तब भी और अब भी..... नहीं कहूँगी तुमसे लौट आने के लिए, जानती हूँ तुम नहीं आओगे, तुम खुश न होकर भी रह लोगे मेरे बिना क्योंकि पुरुष होने की सज़ा भोगने को मजबूर हो, एहसास कमज़ोरी लगते है तुम्हें और पुरुष होकर तुम कमज़ोर तो नहीं हो सकते, ये तो ख़िलाफ़ होगा उन नियमों के जो तुम जैसे पुरुषों ने ही बनाये हैं, अगर आँखों में  नमी आयी कभी याद करके मुझे और मेरे संग बिताये लम्हें, तो दबा लोगे उसे कहीं भीतर ही, पुरुषों के लिए आँसू नहीं होते वो तो कमज़ोरी की निशानी है इसीलिए उन्हें औरत से जोड़ दिया, इस निष्फल प्रेम का भार भी मुझ पर छोड़ दिया तुमने... पर मैं कमज़ोर नहीं हूँ....

रंग

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बहुत ख़ूबसूरत है  इंद्रधनुषी रंग रिश्तों के ! एक ऊष्मा से लबालब जो ऊर्जा देती है जीवन को ... पर क्या कुछ कम है श्वेत-श्याम से, शीतल चाँदनी में नहाये, वो तन्हाई औ' सुकून के लम्हें, जब उन चटख रंगों से दूर मैं अपने साथ होती हूँ, जीती हूँ तो बस अपने लिए ! ©विनीता सुराणा 'किरण' Painting coutesy Savita Ashok Agarwal 

जाली

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यूँ तो कम ही ज़ाहिर कर पाती हूँ अपने जज़्बात तुम्हारे सामने, न जाने क्यूँ एक महीन सा पर्दा हमेशा से रहा है तुम्हारे मेरे बीच, कभी मुखर भी हुई तो तुम सुन नहीं पाए या शायद सुन कर भी   समझना नहीं चाहा, अपनी सहूलियत के लिए... शायद डरते होंगे तुम मैं अपने लिए अधिकार न मांग बैठूं, थोड़ी आज़ादी न मांग बैठूं और तुम सीधे से इनकार न कर पाओ.... आज बहुत हिम्मत जुटाकर नम आँखों से तुम्हारी आँखों में देखकर जब मैंने कहा “घुटन हो रही है मुझे, कुछ अच्छा नहीं लगता, रोने का मन करता है, बस अब और जीना नहीं चाहती....” पहली बार एक डर देखा तुम्हारी आँखों में, मुझे खोने का डर या मेरे बाद तन्हा हो जाने का डर, या फिर उन उलाहनों का डर जो लोगों की आँखों में नज़र आते ? जो भी थी वजह तुमने खोल दी वो बंद खिड़की मेरे कमरे की, जिसे अब तक खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पायी थी मैं .... कुछ राहत तो महसूस हुई पर उस खिड़की पर एक जाली लगा पल्ला भी है जो बरसो से बंद है, जाम

रंग बदलते रिश्ते

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एक बिंदु से शून्य तक, आरम्भ से इति तक,  जीता हूँ कई किरदार, बुनता हूँ ताना-बाना अनगिनत रिश्तों का, समय की धुरी पर चलते-चलते, प्रति क्षण गढ़ता हूँ सम्बन्ध नए... निर्वस्त्र से वस्त्रों की परतों तक बदल जाते है रंग और ढंग इन रिश्तों के, इन संबंधों के, काया से छाया का छाया से प्रतिछाया का कभी न ख़त्म होने वाला द्वन्द ! शायद यही कारक है, यही निर्धारक भी, इन रिश्तों का इन संबंधों का .... प्रतिक्षण रंग बदलते जीवन का ! ©विनीता सुराना 'किरण'

विडालगति सवैया छंद

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शब्दों को साधेगें , छन्दों में बाँधेंगें , गीतों के वृंदों से माता को ध्याएंगें । सोने की बाली से , सिन्दूरी लाली से , तारों की साड़ी से माँ को श्रृंगारेंगें। फूलों के रंगों से , होली खेलेंगीं माँ , चाँदी की डोली में बैठा के लाएंगें। दीपों की माला है , भीनी रंगोली है , माँ आएँगी द्वारे , झूमेंगें गायेंगें। ©विनिता सुराना 'किरण'

बैरी पिया (विडालगति सवैया छंद)

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नींदें मेरी लूटे बेचैनी दे जाए , पूछो तो क्या चाहे क्यों ख्वाबों में आए। नैनों की बातों से जादू सा छा जाए , चाँदी सी रैना हो चंदा डोली लाए। झूला हो बाहों का , खो जाऊँ सो जाऊँ , चूमे वो नैनों को हौले से मुस्काए। यादों के वो साये मेघा जैसे छाये , भीगी-भीगी कोरों से मोती खो जाए। ©विनिता सुराना 'किरण'

थोडा सा जी लें (विडालगति सवैया छंद)

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तेरे मेरे साँझे ख़्वाबों को रस्मों के , धागों से बांधें साथी थोड़ा सा जी लें। काँटे राहों के फूलों से हो जायेंगें , हाथों को थामें साथी थोड़ा सा जी लें। सूखे चश्में धारे हैं प्यासे नैनों के , बांधों को खोलें साथी थोड़ा सा जी लें। कसमें वादे झूठे नाता ये सच्चा , झूठों को भूलें साथी थोड़ा सा जी लें। ©विनीता सुराना ' किरण '

नारी (विडालगति सवैया छंद)

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कष्टों से जूझेगी , धाराएँ मोड़ेगी , चट्टानें तोड़ेगी , नारी ये जीतेगी। दुःखों की आंधी में , ठंडी-ठंडी सी ये , बौछारें लायेगी , नारी ये जीतेगी। रातें अंधेरी हो , काँटों की झाड़ें हो , राहें भी मोड़ेगी , नारी ये जीतेगी। साथी है ये सच्ची , रिश्तों की डोरी में , बांधेगी थामेगी , नारी ये  जीतेगी। ©विनिता सुराना 'किरण'

बसंत (विडालगति सवैया छंद)

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डाली-डाली फूलों वाली भँवरे डोलें, हाँ वो बोलें आया है बासंती मेला गौरी झूला झूले, बाली चूड़ी बोलें, हाँ वो बोलें आया है बासंती मेला बागों पंछी गाते, पंखों को वो खोलें, हाँ वो बोलें आया है बासंती  मेला बासंती झोंकों में मेघा मिश्री घोलें, हाँ वो बोलें आया है बासंती मेला ©विनिता सुराना 'किरण'

राधा कृष्ण

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करो चाहे जतन जितने नहीं मानूँ अभी कान्हा। मगन तुम गोपियों में , राह तकती मैं रही कान्हा। न फल भाएँ न मोदक ही , न बहलाओं मुझे इनसे , अगर सखियों ने देखा तो उड़ायेंगी हँसी कान्हा। ******** राह पर पनघट की कान्हा यूँ नहीं छेड़ो मुझे। अब नहीं बातें बनाओ और लालच दो मुझे। तुम रसिक हो इक भ्रमर से डोलते इत उत सदा , आज बंसी की धुनों से फिर न भटकाओ मुझे। -विनीता सुराना ' किरण '