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Showing posts from September, 2019

साझा मुस्कान

कभी एक कहानी पढ़ी थी चींटी की जो बार-बार दीवार पर चढ़ने की कोशिश करती और फिसल कर गिर जाती पर उसने हार नहीं मानी और बार-बार प्रयास करती रही और फिर तक़दीर ने हार मान ली और उसकी जीत हुई । जाने ये कहानी क्यों याद आ गयी आज तुमसे बातें करते हुए ... बातें तो थीं पर शब्दविहीन, साँसों का संवाद था, बहुत कुछ था कहने को पर सच पूछो तो कुछ भी नहीं था। कभी-कभी निराशा शब्द छीन लेती है, मन की ज़मीन जैसे बंजर हो जाती है और शब्द धीरे-धीरे मुरझा कर दम तोड़ देते हैं । नए शब्द उगाने के लिए मन की ज़मीन को पुनः उपजाऊ बनाने के लिए कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ता ... बस थोड़ा इंतज़ार और मिट्टी ख़ुद ही संवार लेगी ख़ुद को ।            पहली नाकामयाबी बहुत खलती है पर उससे भी ज्यादा खलता है उससे उबरने में लगने वाला वक़्त ! "काश इस वक़्त हम साथ होते … जब तुम्हें जरूरत है मेरी, मैं आ ही नहीं पायी वहाँ पर तुम जानते हो न कि हमारे बीच एक लम्हे की भी दूरी नहीं रही .." "ये पूछ रही हो ?" "नहीं बता रही हूं एक रिमाइंडर के लिए .." और वो हँसते-हँसते बोला, "ठीक है सेव कर लिया रोज सुबह अलार्म के साथ बजेगा &

ख़ामोशी

बहुत शोर करती हैं खुशियां शायद इसीलिए चुभ जाती हैं, खलने लगती हैं एक समय और एक सीमा के पश्चात मेरे आसपास सभी को यहाँ तक कि मेरे अपनों को भी हमें अपने अलावा किसी और का शोर कब पसंद आया? मुझे उदासियाँ भाने लगी हैं, बहुत ख़ामोशी से आती हैं और चुपके से बिना शोर किये अपनी जगह बना लेती हैं किसी को ऐतराज़ नहीं होता क्योंकि कोई शोर नहीं होता ... तुम अपने छोर पर मैं अपने छोर पर दोनों अपनी-अपनी उदासी ओढ़े बैठे हैं हमारे बीच ये चुप्पी का पर्दा है कुछ दिखाई नहीं देता हाँ मगर पहचान लेती हूं तुम्हारी ख़ामोशी को और उसमें लिपटी उदासी को भी कितना सुकून है न, अब कहीं कोई शोर नहीं होता ! किरण

एक चिट्ठी माँ के नाम

माँ, आज न आपका जन्मदिन है, न पुण्यतिथि, न ही मातृ दिवस, आपकी याद यूँ भी किसी विशेष दिन की मोहताज नहीं ... मेरे मन के पन्नों पर जाने कितनी अप्रेषित चिट्ठियां लिखी हैं आपके नाम की पर आज शब्दों ने जैसे बगावत की ठानी है और क़लम की स्याही ने उनका साथ देने की ...             कहते है न मूल से ब्याज़ ज्यादा प्यारा होता है पर आप तो नानी नहीं माँ ही बनी रहीं ताउम्र मेरे लिए। मेरी जन्मदात्री न होते हुए भी 'माँ' शब्द को सम्पूर्ण मायने दिए आपने और विरासत में मुझे अपनी स्मृतियों का अकूत खज़ाना दे गयीं । कभी घर के कोने-कोने में बिखरी रहने वाली आपकी ख़ुशबू भले ही मिटा दी इस बेरहम वक़्त ने,  आपकी निशानियां भी धीरे-धीरे जीवन की आपाधापी में खो गयीं पर जो छोटी-छोटी पर अमिट छाप आपने मेरे जीवन में अपने दिए संस्कारों से रोप दी वो कभी धूमिल नहीं हो सकती ।            आज बरबस ही वो दिन याद आ रहा है जब दर्द, तक़लीफ़ और अपनी एक-एक सांस से झूझती आपकी आंखों में कहीं एक रेशा भी मृत्यु का डर नहीं था, बस थी तो अपनी वंशबेल के लिए फ़िक़्र, जो गैरवाजिब भी नहीं थी क्योंकि हम सभी आप पर, आपकी ममता पर आश्रित जो रहे हमेशा .

सन्नाटा और शोर

अचकचा कर उठ बैठती हूँ अक्सर और देखती हूँ अपने बिस्तर पर बेतरतीब पसरी हुई सलवटों को ... आधी रात की गहरी नींद में जैसे पुकारा हो किसी ने ... पहचानी सी फिर भी अनजानी सी वो आवाज़ फिर रह-रह कर गूंजती ही रहती है सहर होने तक .... यूँ तो इस बड़े से घर के बड़े-बड़े कमरों में सन्नाटे का ही शोर पसरा रहता है, और गाहे-बगाहे दस्तक देता है मेरे मन पर .. हाँ तुमने ठीक सुना सन्नाटे का अपना शोर हुआ करता है जो धीरे-धीरे चुपके से भीतर आना चाहता है और जब भीतर क़ैद हो जाये तो छटपटाता है बाहर निकलने को... इस बड़े से घर में अक्सर भटक जाती हूँ तो खुद को खोजने तुम तक लौटती हूँ , एक तुम ही तो हो जो समझ सकते हो मेरा गुम हो जाना ! बड़े कमरों की बड़ी-बड़ी खिड़कियां, उन पर झूलते पारदर्शी पर्दे दुनिया की नज़रों से बहुत कुछ छुपाते हैं पर रात की मद्धिम रोशनी में उभरी आकृतियों की तरह कुछ ज़ाहिर भी कर जाते हैं ... ठीक उसी तरह इस घर की चुप्पी में बहुत सी अनकही बातों का शोर है, उन शिकायतों की अर्ज़ियाँ, जो कभी दर्ज़ नहीं हुई,अक्सर इसकी सीली हवा में फड़फड़ाकर अपने अधूरे सफ़र की याद दिलाती हैं। मन अक्सर लौट जाना चाहता है उन बचपन की गलियो