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Showing posts from August, 2018

आईना

अक्सर चाहा आईना हो जाना ख़ुद से रूबरू होना अपने अक्स को सहज हो देखना और दिखाना मगर आईने अक्सर चुंधिया देते हैं जब किरणें टकराती हैं शायद किसी को आदत नहीं रही इतने उजाले की तीरगी ढक जो देती है कितने ही ऐब.. आख़िर अपने ऐब ढूंढने के लिए आईना कौन देखता है? सभी तो देखना चाहते हैं उस मद्धिम पीली रोशनी में अपना धुला-धुला अक्स शायद इसीलिए ढक दिया करते हैं आईना, जब भी उजली धूप भर जाती है कमरे में ! 💕 किरण

प्यार के परों पर ..

            मन बंजारा             जग अपना सारा             ढूंढे किसको ! अपने ख़्यालों के परिंदों को हौले से छोड़कर आसमान में, दूर ...बहुत दूर जाते अक़्सर देखना धीरे-धीरे अल्फ़ाज़ में ढलकर फिर उन्हें लौटते भी देखना किताबों की शक़्ल में ! यही से तो आगाज़ होगा उस सफ़र का जो तय करेगा हर उस रिश्ते का ताना-बाना जिसे गढ़ने तुम्हें भेजा गया दुनिया में यही वह सफ़र होगा जो ख़ुद से ख़ुद के रिश्ते को अंजाम तक पहुंचा दे शायद... इस सफ़र के तज़ुर्बों पर फिर कई किताबें लिखी जाएंगी उनमें उभरे कुछ अल्फ़ाज़ होंगे जो वज़्न में भले ही ज़ियादा हों पर सुनो, सिर्फ एक ही लफ्ज़ है, जो उन सारे बड़े और बोझिल से लगते अल्फ़ाज़ को सही मायने देता है 'प्यार' परिंदों की उड़ान भी परों के बिना संभव कहाँ ? हाँ वही 'पर' जो नाज़ुक और हल्के हों बिल्कुल 'प्यार' की तरह ! 💕Kiran

कितने सवाल !

बचपन में अक्सर धर्म-कर्म की बातों से ऊब होती थी जब धर्म-गुरुओं की कथनी-करणी में फर्क़ दिखाई देता, ऐसे में सवाल उठाने पर अक्सर दादी कहतीं, "क्यों निंदा करते हो ? वे हमसे तो लाख दर्ज़ा अच्छे हैं, कुछ तो त्याग करते हैं । हम तो इतना भी नहीं कर पाते ।"      तब भी मन यही कहता कि अगर त्याग किया या वैराग्य लिया तो स्वेच्छा से लिया उन्होंने, किसी ने जोर-जबरदस्ती तो नहीं की थी कि गृहस्थ मत रहो, दुनिया के संसाधनों का त्याग कर दो, दर-दर भटको। अगर स्व-कल्याण की सोच थी सन्यास के पीछे तो ये भी स्वार्थ था, जन-कल्याण का श्रेय किस तरह लिया जा सकता ? अपना कर्म-क्षेत्र चुनना अगर अधिकार है तो उसके कर्त्तव्य पालन के लिए अन्यों पर एहसान क्यों ?        हमसे बेहतर हैं बहुत मगर इससे उन्हें ये अधिकार नहीं मिल जाता कि उनकी गलत बात का विरोध भी न हो !        बात केवल धर्म से ही संबंधित नहीं प्रत्येक कर्म-क्षेत्र से संबंध रखती है । हम सब स्वतंत्र हैं एक हद तक अपना कर्मक्षेत्र चुनने के लिए, चाहे हम नाम जनसेवा दें, समाजसेवा दें, देशसेवा दें या व्यापार .. हम स्वयं अपने कर्म के लिए उत्तरदायी हैं और अगर हम ये

ज़िंदा हैं हम

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हाँ पसंद है ये पुरानी इमारतें, ये किताबें हैं जिनमें आज भी दर्ज़ हैं कितने अनकहे किस्से, ये दस्तावेज़ हैं उन फैसलों के जिन्होंने कभी ज़िन्दगी को छुआ तो कभी मुक्ति को, इनके पत्थरों पर उकेरी गयीं मोहब्बत की इबारतें हर स्नेहिल स्पर्श से जीवंत हो उठती हैं, इनकी खामोशियों में गूँज है रूमानी नगमों की अधूरी चाहतों की  सिसकते इंतज़ार की फरियादों की दुआओं की, इनके चुप्पे कौनों में अक्सर धड़कते हैं बेचैन दिल, इनकी कोटरों में सुकून से रहते पंछियों की फड़फड़ाहट देती है सबूत इनके जीवंत होने का रोमांचित करता है हवा का हर वह झोंका जो इनके झरोखों और दरों-दरवाज़ों से गुज़रता हुआ सहला जाता है तन्हा दिलों को, जब भी कोई नन्हा क़दम अनजान दिशा में बढ़ता है या कोई मदहोश क़दम लड़खड़ा जाता है इनकी दीवारें बोल पड़ती हैं, "ज़रा ध्यान से !" इनके अवशेषों में अब भी है जीवन की रागिनी दो पल इनके साथ इनका होकर गुज़ारो तो सही ... 💝किरण

चंद लम्हे ही तो

तुमने ठीक कहा कि कुछ भी बेवज़ह नहीं होता, यूँ ही नहीं होता... कोई रास्ता दिखाई दे तो कहीं जाकर तो रुकेगा ही, भले ही मनचाही मंज़िल या पड़ाव न भी हो पर उस सफ़र का कोई तो मक़सद होगा, एक गलत मोड़ भटका सकता है पर अनुभव का एक पन्ना तो जोड़ ही देगा। याद है चट्टानों के पीछे से बहती वह पतली सी धारा, जिसे हम छोड़कर आगे बढ़ गए थे फिर कुछ क़दम चलकर लगा जैसे किसी ने पुकारा हो, "चंद लम्हों के तलबगार हम भी हैं, आज कस्र ही सही पर क्या जाने हम भी किसी झरने या नदी का हिस्सा रहे हों, एक स्पर्श स्नेह का ...चलो एक नज़र ही सही.." #सुन_रहे_हो_न_तुम ❤️किरण

एक शाम या कर्ज़

एक अरसे बाद तुमसे बात हुई तो जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हुई, कुछ फ़ासले तय हुए, अपनी ही बातों के मायने समझ पायी। न जाने ये वक़्त हमारे बीच से कब गुज़रा, क्या तुमने देखा ? तुमने कहाँ मैंने छोड़ दिया तुम्हें पर मैंने अधिकार ही कब चाहा था तुम पर? तुम एक खूबसूरत एहसास हो जो मेरे साथ हमेशा रहा, तब से अब तक, एक सिरे पर ठहरा वक़्त आज फिर वहीं से चल पड़ा और हाथों में हाथ लिए हम भी क़दम मिला जाने कहाँ-कहाँ घूम आये । कभी बारिशें भिगो गयीं, तो कहीं पहाड़ों ने आग़ोश में ले लिया, नदी की धारा हमारे कदमों को चूमती रही और हम एक दूसरे में खोए बस बतियाते रहे घंटों तक। हाँ कुछ कविताएँ भी गुज़री हमारे आसपास से, मैं गुनगुनाती रही, भीगती रही और जाने कब एक बूंद छलक आयी । तुम सांस रोके घुलते रहे मेरे एहसासों के नमक में और इस बीच जाने वक़्त कहाँ सरक गया चुपके से।       एक पूरी शाम का कर्ज़ हम पर चढ़ा कर वक़्त मुस्कुराता रहा मानो कोई एहसान उतारा हो इतने लंबे अरसे की चुप्पी का ।  #सुन_रहे_हो_न_तुम ❤️ किरण

डायरी से

पुरानी डायरी के उन बोसीदा पन्नों में एक वरक़ नया सा है अब भी, तमाम खारी बारिशें नहीं धो पायीं उस पर उकेरे अल्फ़ाज़, वही वरक़ तो गवाह रहा है ख़ुश्क रातों में जागती नम आंखों का हवाओं से बारहा लड़ते उम्मीद के चराग़ का धुंधले ख़्वाबों के पार झलकते रंगों का ... वही एक पन्ना तो अब तक संभाले है मटियाते शब्दों की उस जर्जर इमारत को ! © किरण

रंगों सी तुम

"मुझे बस दो ही रंगों से लगाव था ...काला और सफ़ेद ... पर हाँ जब माँ ज़िद करती तो नीला शर्ट ले लिया करता मगर इनसे इतर कभी कोई रंग न लिया ।" उसने कहा मैंने तपाक से सवाल दाग दिया, "अच्छा ! मगर बाकी रंगों से बेरुख़ी क्यों ? सोचो अगर सारी दुनिया श्वेत-श्याम ही होती तो क्या इतनी ख़ूबसूरत होती ?" "तो तुम्हें लगता है ये सारी क़ायनात रंगों से सजी है इसीलिए सुन्दर है ? कभी धुंध में रंगों को ढूंढना या रात में बिखरी चाँदनी में ... अक़्सर मेरे स्कैच सफ़ेद कोरे कागज़ पर पेंसिल से उकेरे हुए आड़ी-तिरछी रेखाओं के जाल से अधिक कुछ नहीं रहे मगर तुमने कितने एहसास पढ़ लिए उनमें और शब्दों में ढाल दिया । तुमने कभी उनमें रंग भरने को नहीं कहा मुझे ... तुम्हें भी तो आम लड़कियों की तरह रंग-बिरंगी लीपा-पोती पसंद नहीं है न ? न कभी नाख़ून रंगते देखा तुम्हें न लिपस्टिक होंठों पर फिर भी जब एक बारगी नज़र पड़ती, हटाने को जी नहीं करता । हाँ तुम सब रंग पहनती हो और तुम पर सभी फबते भी होंगे मगर यक़ीन मानो तुम्हारे वस्त्रों पर एक सरसरी निगाह भर डालकर मेरी आँखें बस तुम्हारे हिलते होंठों पर और कान तुम्हारी मीठी आवा

सहारा नहीं साथ

सुनो, सहारा मत बनो... हो सके तो साथ रहो.... न भी रह सको तो ये भ्रम ही रहने दो कि तुम हो या फिर कह दो कि नहीं हो । मैं बेल नहीं हूँ कि सहारा ढूंढू, न ही ख़्वाहिश है आसमाँ छूने की बस एक परिंदा हूँ, पर खोले प्रतीक्षारत हूँ..... हवा के संग उन्मुक्त विचरने को । तुम्हें जाने कब और क्यों लगने लगी प्रतिद्वंद्वी जबकि मेरी प्रतिस्पर्धा तो स्वयं मुझसे ही रही हरदम, एक बेहतर 'स्व' की चाह रही जब भी आईना बनके कोई क्षण  ठहरा और मैं पीछे मुड़कर तलाशने लगी वजह मेरे होने की ! अनगिनत प्रश्न अब नहीं बांधकर चलती अपनी पीठ पर, बस कुछ मधुर स्मृतियां, कुछ कड़वे अनुभव काफ़ी हैं ...'स्मृतियां' प्राणवायु है जब कभी ऊर्जा न्यून हो जाए और 'अनुभव' राह भटकने से बचाने को लगाए गए बोर्ड 'प्रवेश वर्जित' या 'एकल मार्ग' ! #सुन_रहे_हो_न_तुम ©विनीता किरण

तुम ही आये थे न

अकेले रहने से कभी घबराहट नहीं हुई न ही किसी के साथ न होने की कमी खली.. शायद बचपन से तन्हाई पसंद रही हूँ, एक हद तक आज भी वैसी ही हूँ पर अब किसी से भी बात करने में झिझक नहीं होती । हाँ मगर बात कितनी लम्बी होगी ये सामने वाले पर अधिक निर्भर कि वह मुझे कितनी देर झेल सकता/सकती 😜    अलीबाग में beach पर वो भीगी सी भोर कुछ अजीब थी। दूर तक ख़ामोश आसमान और पैरों के नीचे नर्म रेत का गलीचा, कमरे से सोच कर निकली थी सैर के लिए पर जाने क्यों मन हुआ कुछ देर बैठ जाऊँ वहीं ... धुंधलके में एक दो आकृतियां तो दिखीं चहलक़दमी करती हुईं मगर जैसे मेरे लिए उनका कोई वुजूद था ही नहीं उस समय। लहरें मगन थीं अपनी पकड़ा-धकड़ी में, मगर मुझे बस समुद्र की गहराई महसूस हुई, गंभीर और तटस्थ समुद्र चंचल लहरों को हँसते-खेलते निर्विकार भाव से देखता हुआ । उस एक पल में जाने क्यों किसी के साथ होने का एहसास हुआ, दाएं-बाएं, आगे-पीछे, कोई नहीं मगर फिर भी वह एहसास, कुछ तो था जो समझ से परे था या शायद मेरी कल्पना मगर उसके होने का एहसास दिमाग़ में उठते हर प्रश्न पर भारी था...        ख़ुद को आलिंगनबद्ध किये देर तक बैठी रही गीली रेत पर, बीच-ब

एक उदास शाम

ढलती सांझ से अच्छा कोई वक़्त नहीं होता ज़िन्दगी के पन्ने पलटने के लिए ... अपना किया अच्छा-बुरा, सही-गलत परखने के लिए ।        याद है बचपन की वे गलियां और बनती बिगड़ती दोस्ती, हर दिन दसियों बार कट्टी और बीसियों बार अब्बा, वे मासूम झगड़े और छोटी-छोटी बंदरबांट ... "सुन दो कंचे ले ले बस एक बार तेरा वह मेले वाला चश्मा लगाने दे।" "तेरे गुड्डे को मेरी गुड़िया पसंद है तो क्या, मैं तो नहीं भेजती मेरी गुड़िया... जा नहीं करनी मुझे उसकी शादी।" "तेरी बहन है न बिल्कुल वैसी मेरी मम्मी भी लायी है... पर हम उसको छुपा कर रखते।"           याद है नए-नए एहसासों की वह पहली दस्तक जब हर नज़र अपना पीछा करती महसूस होती थी। किसी की एक सहज मुस्कान में भी मायने तलाशा करता था मन और जाने कितने ही काल्पनिक कथानक हर रोज गढ़ लिया करता था। ख़ुद से बाते करना और जब-तब आईने में ख़ुद का अक्स निहार लेना प्रिय शग़ल हुआ करता ।           हाँ सब कुछ अच्छा और सच्चा भी नहीं था, मासूमियत थी तो कुछ अनचाहे स्पर्श भी थे, अल्हड़ सी उन खुशियों के बीच कुछ कुत्सित निगाहों की खरपतवार भी थी, जिन्हें कुदाल से उखाड़ फैंकन

रात की चादर

कुछ बातें दिन की भागमभाग में नहीं रात की नीरवता में ही समझ आती हैं इसीलिए बेसब्री से इंतज़ार करती हूं दिन के गुज़रने और रात के ठहरने का। रात की सियाही जाने कितने ऊष्ण रंग सोख लेती है ख़ुद में मगर फिर भी नहीं खटकती आंखों में ... घोल कर पी जाती है बहुत से अनचाहे सवाल और बचा लेती है मन के कोमल रेशों को एक अंतहीन युद्ध से ...        बिना सिलवटों की चादर, दूधिया सफ़ेद गिलाफ़ वाला तकिया और तुम्हारे क़रीब होने का एहसास, बस यही तो चाहिए होता है नींद को, घेर लेती है आकर और करती है अपने मायाजाल में उलझाने की भरपूर कोशिश मगर मैं भी कुछ लम्हे चुरा लेती हूँ ताकि बुन सकूँ थोड़ी और नज़दीकियाँ, समेट सकूँ तुम्हारी ख़ास महक अपने में ... अजीब है न ये तश्नगी जो कभी कम न हुई ... रातों को कुछ देर और जागना और सुबह कुछ देर और सोना हमेशा से पसंद रहा है मुझे पर तुम तो सब जानते हो, मुझे मुझसे बेहतर या तो रात समझ सकती है या तुम ... हाँ तुम मेरी 'रात' ही तो हो ! सुनो, फिर से कसमसाने लगे है कुछ अनचाहे सवाल, क्या मेरी चादर बनोगे ? सोना चाहती हूं अब ... एक लंबी, गहरी नींद ... #सुन_रहे_हो_न_तुम ©विनीता किरण