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उम्मीद

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एक अरसे के बाद कुछ अलग से लगे तुम अधूरे नहीं पूरे से फलक पर दिखे तुम.... एक नूर है , नज़ाकत भी , जैसे झोली में फलक की किसी परी ने डाली हो कोई सौगात हसीं ...... खिले-खिले से दूध में नहाए से किसी के ख़्वाबों की ताबीर हो जैसे..... याद है तुम्हें वो रतजगे जब हम बतियाते थे, जाने कितने पहर यूँ ही आँखों में कट जाते थे, तुम सबसे प्यारे दोस्त थे मेरे, तब अक्सर मिलने आते थे मुझसे और रख जाते थे एक उम्मीद मेरी सूनी हथेली में, मैं रख देती थी उसे संभाल कर अपनी डायरी में । फिर एक दिन आंधी चली उठा था बवंडर सा और फलक भी सहम गया था उसके कहर से.... उस धुंधलके में जाने कहाँ गुम हुए तुम कि फिर कभी नज़र नहीं आए मुझे, या मेरी आँखों में उमड़ते गहराते काले बादलों ने ढक दिया तुम्हें ... तब के बिछड़े आज मिले हो एक अरसे बाद तो लगता है कोई शगुन लाए हो, शायद फिर एक उम्मीद सजाने मेरी सूनी हथेली पे .... ©विनिता सुराना किरण