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Showing posts from October, 2017

कन्या पूजन

कभी भेदती नज़रों से, कभी कसैली ज़ुबाँ से, कभी अश्लील भावों से, कभी बदनीयत हाथों से प्रतिदिन निर्वस्त्र होती हैं 'कन्याएँ' ! कभी सुरक्षा के भ्रम में, कभी संस्कारों की आड़ में, कभी परिवार की आन, बान और शान के नाम पर, प्रतिबंधित होती हैं 'कन्याएँ' ! कभी परिचित, कभी अपरिचित तो कभी रिश्तों की गरिमा को तार-तार करते उनके अपने ही सरंक्षक हाथों द्वारा शोषित होती हैं 'कन्याएँ' ! तमाम वर्जनाओं, दलीलों और उलाहनों से घायल परंतु निरंतर सांस लेती, जीवित होने का भ्रम लिए, शिक्षा के लिए संघर्षरत, युवा होती ......जब कभी अधिकारों की बात करें, ऊँची ज़रा अपनी आवाज़ करें, तो कभी गालियों, कभी बंदूकों, कभी लाठियों से प्रताड़ित होती हैं कन्याएँ ! कभी ईश्वर प्रदत्त सर्वाधिक सुरक्षित समझी गयी माँ की कोख में भी तो अब सुरक्षित नहीं ये, पाषाण हृदय और बेरहम हाथों द्वारा कभी कूड़े के ढेर में बिलबिलाती, कभी श्वानों का ग्रास बनती, प्रतिपल कुचल दी जाती हैं कितनी ही कन्याएँ ! हाँ मगर साल में दो बार हर नवरात्र के समापन पर अब भी देवी सदृश पूजी जाती हैं कन्याएँ ! #कन्या पूजन # किरण

कुछ यूं ही

जब आसपास कुछ सकारात्मक न दिखे तो पुरानी, बहुत पुरानी मीठी यादों को खंगाल कर कुछ मिठास मिल सके तो इससे बेहतर कुछ नहीं ... अपनी डायरी के ज़र्द हो चुके पन्नों की वो बासी गंध भी बेहतर लगती जब विचारों की सड़ांध हो आसपास ... कभी जब अपने मन की गुत्थियाँ न सुलझे तो दोस्तों की गुत्थियाँ सुलझाने का प्रयास, स्वयं अपने लिए कई ताले खोल देता ... काउन्सलर की भूमिका में जाने कहाँ, कब, कैसे कुछ चाबियां मिल जाएं ... कागज़, कलम और शब्द ... इनका मेल बेमानी कभी नहीं हो सकता अगर दिल से किया जाए । बस दिल की सुनें और स्याही को बह जाने दें, कुछ साँसें और मिलेंगी उन मृतप्राय एहसासों को, जो कभी जीने की वजह हुआ करते थे शायद .... #डायरेक्ट_दिल_से # किरण

ज़िन्दगी और मौत

प्यार , प्रेम , मोहब्बत , इश्क़ अगर कमज़ोरी बन जाए तो इन एहसासों से दूर रहना बेहतर ... प्रेम सारी दुनिया से हो तो अच्छा पर उससे पहले स्वयं से हो तो बेहतर .... ज़िन्दगी ने कब कहा कि वो आसान होगी ? जब राह स्वयं चुनोगे तो फूल ही फूल हों ये संभव नहीं, यूँ भी खार न मिलें तो फूलों को पूछेगा कौन , उनकी कोमलता, उनकी सुगंध , उनकी खूबसूरती को सराहेगा कौन ? ज़िन्दगी या मौत , कौन सा विकल्प बेहतर ? शायद मौत .. क्योंकि आसान लगता है न पर फिर वो खुशी कैसे हासिल होगी जो एक मुश्किल सफ़र के बाद मिली छोटी सी भी सफलता से होती ? "मैं अब जीना नहीं चाहता/चाहती, मर जाना चाहता/चाहती हूँ" किसी और से कहा हो या नहीं , खुद से कभी न कभी जरूर कहा होगा हर व्यक्ति ने विषाद के पलों में .... ऐसे समय में प्रवचन की नहीं एक जादू की झप्पी, एक ख़ामोश स्नेहिल स्पर्श की आवश्यकता होती है । कोई और न हो तो स्वयं को दे सकें, इतना हौसला हम सब में हो काश ! मौत मंज़िल नहीं , अगर होती तो जीने की जिजीविषा कभी न होती । ज़िन्दगी एक सफ़र ही सही, चलो थाम कर अपना ही हाथ चलते है

दिल की बात

माना असीमित ऊर्जा है मुझमें, तुम्हारे कितने ही एहसास सहज ही समेट लेता हूँ अपने भीतर .... दिन रात निरंतर अपनी ऊर्जा से प्रेरित करता हूँ तुम्हें कि तुम चलते रहो जीवन पथ पर ... मगर ये क्या !!! तुम तो हर छोटी-छोटी बात को लेकर दुःखों का पहाड़ बना मेरे ऊपर लाद देते ... कुछ काम अपने मस्तिष्क से लो ताकि वो बेकार की और छुटभैया टाइप परेशानियां अपने स्तर पर ही छटनी करके मेरा भार कम कर दे । और हाँ , जाते-जाते एक बात और गांठ बांध लो ... ये हर राह चलते या चलती को मुझे देने की बात न किया करो ... "मेरा दिल तुम्हारा हुआ" , "मैनें दिल तुमको दिया" , " हमारा दिल आपके पास है" ... ये जुमले कसम से मुझमें इतनी खीज भर देते हैं कि सोचता हूँ जिस दिन मैं चल दिया सच में तभी तुम समझोगे मेरी अहमियत ... पर मेरे अजीज़ तब तक बहुत देर न हो जाए 🤔 ये क्या मुस्कुराए 😊😊😊 अरे कभी खुल के भी हँस लिया करो, मेरा भी व्यायाम हो जाएगा और मैं दोगुने जोश से दौड़ने लगूँगा 👍 #कुछ_दिल_ने_कहा

करवाचौथ

"दीदी , मैं कल काम पर नहीं आऊँगी", घरेलू सहायिका ने कल जाते-जाते कहा । "क्यों कल क्या है?", मैंने अख़बार से सर उठाते हुए पूछा। "अरे कल करवा चौथ है न दीदी.." "अरे हाँ ! चल ठीक है ... अरे सुन तो, पिछले ही हफ़्ते तू मुझे कह रही थी, मैं चाह रही वो घर से निकले तो मैं बच्चों की ज़िंदगी सुधार पाऊँ, रोज दारू पीकर मारपीट करता मेरे और बच्चों के साथ। बच्चे ठीक से पढ़-लिख, खा-पी भी नहीं पाते, कमाता-धमाता नहीं उल्टा मेरे पैसे भी लडलड़ाकर ले जाता", मुझे अचानक पिछले हफ्ते का उसका रोना-धोना और सूजा हुआ माथा याद आ गया । "हाँ दीदी , सच बहुत दुःखी हो गयी ... दिन भर हाड़ तोड़ती पर फिर भी कम ही पड़ता, ऊपर से ये आफत मेरे गले पड़ी है...", उसने एक लंबी सांस लेते हुए कहा। "इसके बावजूद भी तुझे उसकी लंबी उम्र के लिए उपवास रखना है ताकि और 50 -60 साल तुझे और बच्चों को तले ? ऐसा कौन सा सुख दे रहा तुझे जो ये व्रत रखना तुझे ?" मैं खुद को रोक नहीं पायी उसके तीन बच्चों की मुरझाई सूरत याद करके । "क्या करूँ दीदी, आखिर है तो मेरा आदमी ही, मेरे बच्चों का बाप भी,

कोहरे की चादर

बारीक बूँदों से बुनी कोहरे की चादर ओढ़े रुई के गोले से आसमान से नीचे उतरते आ रहे थे मानो आगोश में लेना चाहते हों मुझे और मैं बस मुग्ध सी देखती ही रही धीरे-धीरे उन्हें अपने करीब, और भी करीब आते हुए जब तक मेरे चेहरे पर चुनरी बन लिपट न गए...        दोनों हाथ फैलाये मैं कमरे के बाहर बालकनी में खड़ी अपनी आंखें मूंदे बस महसूस करती रही वो नरम सा, नम सा मासूम, निश्छल स्पर्श, जो हौले-हौले मेरे रोम-रोम को जगा रहा था पर एक नीम मदहोशी सी मन पर छाने लगी थी।                                 सुबह जब यहीं दूसरी मंजिल पर खड़े हुए, नीचे की ओर नज़र गयी तो घटाओं से निकलते झरनों की जलधारा का अद्भुत नृत्य देख मैं तब भी मुग्ध हो गयी थी, देर तक शायद बिना पलक झपके झर-झर झरते अमृत और भीगती हुई मदहोश सी घास को अंगड़ाई लेते देखती रही थी पर तब की मुग्धता अब की इस नीम मदहोशी से अलग थी जैसे अजीब सा चुम्बकीय आकर्षण है इस दूधिया चादर में और मैं बेतकल्लुफ़ सी बेकरार हो उठी उस नरम आगोश में समा जाने को ... एक पल को ऐसा लगा मैं गिर रही हूँ शायद उस गोल बालकनी से नीचे फिर तुमने आवाज़ लगा रोक लिया मुझे और मैं संभल गयी उस फिसलन से

एक खत रंगों के नाम

मेरी अभिव्यक्ति के साथी,          तुमसे बिछड़े अरसा हुआ पर यकीन मानो मैं कभी नहीं भूली तुम्हें ... हाँ दूर कर लिया ख़ुद को तुमसे पर इसलिए नहीं कि तुमसे नाराज़ थी, कैसे नाराज़ हो सकती थी तुमसे ? तुम ही तो थे जिसने मुझे अपने-आप से मिलवाया, जो कुछ शब्दों में भी बयां करने की हिम्मत न जुटा सकी वो तुम्हारे ही माध्यम से तो साझा किया, तुमने मेरी कितनी ही कल्पनाओं को साकार किया, मेरे श्वेत-श्याम से ख़्वाब जब कागज़ पर उतरे तो तुम्हारी ही चमक ने उनमें जीवन भर दिया। मेरी मनोदशा के हिसाब से तुम हल्के, गहरे, चटक, फ़ीके कितने ही रूप बदलते रहे पर कभी कोई शिक़ायत नहीं की, कभी थके भी नहीं बस मेरे साथ चलते रहे, मेरे सभी एहसास ख़ुद में समेटे और मेरे मन को सुकून देते रहे। तुम सच्चे दोस्त थे पर मैं ! मैं अपनी उलझनों में यूँ उलझी कि तुम्हें ही भुला बैठी, बिना कोई कारण बताए तुम्हें खुद से दूर कर दिया। तुम यदा-कदा मेरे सामने आ जाते, कभी दराज़ों की सफाई में, कभी पुरानी पेंटिंग की झाड़पौंछ में, मेरी बेकद्री से सूखे से, मुरझाए से ..... पर मैं ही ख़ुद को तैयार न कर पाई तुम्हें फिर से अपनाने के लिए, क्या करती जो अब तक ख़ुद की