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Showing posts from May, 2017

बिरादरी (कहानी)

बिरादरी हर रोज की तरह शाम को बच्चों को कंपाउंड के पार्क में लेकर आई रागिनी ने अभी पहला ही चक्कर लगाना शुरू किया था कि सामने से आती हुई शोभना को देख कदम ठिठक गए | क्या ये सचमुच वो ही शोभना है जो पूरी बिल्डिंग में चहकती फिरती थी ? रोज नए-नए कपडे पहनना, सजना-संवरना, बच्चों के संग बच्ची बन जाना और बड़ों के साथ भी हँसी-ठिठोली ... पूरी बिल्डिंग की रौनक थी शोभना पर आज जिस शोभना को रागिनी देख रही थी वो तो उसकी परछाई मात्र है | सादा सा सलवटों भरा सलवार कमीज़, रूखे, बिखरे बाल, मुरझाया सा चेहरा, बुझी हुई आँखें ... रागिनी को देख वो एक फीकी सी मुस्कान बिखेर बिना कुछ कहे आगे बढ़ गयी |           दो महीने पहले की ही तो बात थी, जब दोपहर में बच्चों को स्कूल बस से लेकर लौटते वक़्त रास्ते में शोभना को एक लड़के के साथ मोटरसाइकिल पर देखा था, बिल्डिंग से थोड़ी दूर उतर गयी थी शोभना और फुर्ती से बिल्डिंग की लिफ्ट में घुस गयी थी | दो-तीन दिन बाद ही किसी ने बताया शोभना की सगाई हो गयी, 10 दिन के भीतर ही शादी थी, ऐन शादी के एक दिन पहले वही मोटरसाइकिल वाला लड़का एक बुजुर्ग दम्पति के साथ आया था शोभना के घर, कुछ ऊँची आव

क्या चले ही जाओगे ?

कैसे सोच लिया, तुम जाओगे ... और चले ही जाओगे ? मैं तुम्हें नहीं रोक पाऊँगी, तुम्हारा जाना नियति है पर फिर भी कहो तो... कैसे जाओगे ? नहीं जानते क्या, मैं आज भी वही हूँ जो इत्र की खाली शीशी छुपा दिया करती थी अपनी अलमारी में और फिर कई महीनों तक महका करती थी वो अलमारी और उसमें रखी हर चीज... अगरबत्ती के खाली पैकेट और पन्नियाँ हर दीवाली की सफाई में, मेरी मेज की दराजों से ही तो निकलते थे , सब हँसते थे उन्हें देख कर पर मुझे तो वो भीनी सी ख़ुशबू पसंद थी, जो दराज़ में रखी मेरी कलम से लिपट जाया करती थी पूजा के लिए आई गैंदे की माला के साथ वो गुलाब की आठ-दस पत्तियां .. चुपके से दबा आती थी अपनी किताबों के पन्नों में शायद तभी उस महक के साथ ही उन किताबों के शब्द भी रच-बस जाते थे मुझमें ! अब भी तुम्हें लगता है, तुम जाओगे तो चले ही जाओगे ? जाकर भी अपनी ख़ुशबू को मुझसे जुदा किस तरह कर पाओगे ? विश्वास नहीं .... तो महसूस करो, मेरे अल्फ़ाज़ यूँ ही नहीं महकते मेरी डायरी में ! ©विनीता सुराना किरण

अंधेरा

सुनो, कभी-कभी चाँद का न आना चाँदनी का रूठ जाना तारों का छुप जाना बेहद सुकून देता है .... हम दोनों नहीं देख पाते एक दूसरे के चेहरे पर उभर आयीं वो महीन सी सिलवटें जिन्हें वक़्त छोड़ गया खेल-खेल में ... अंधेरे की काली सतह पर खूब चमकती हैं हमारी आंखें वो चमक फिर लुभा लेती है कुछ उचटे से मन को शायद, हमारे आसपास ओझल हो जाती है हर वो चीज़ जो ध्यान भटका सकती थी एक दूसरे से ... उस एक पल में, हाँ बस उसी पल में हट जाता है हर पर्दा, मिट जाते हैं सभी फ़ासले तुम्हारे-मेरे बीच के । ©Vinita Surana Kiran

पगली

"पगली है क्या, कितना हँसती है !" कभी टोक दिया करती थी उसे माँ, खिलखिलाकर हँसती और फिर बरसने लगते थे आंखों से मोती । हाँ ... आज भी हँसती है वो बात-बात पर, बरसते हैं अब भी मोती पर इन दिनों तो बाढ़ सी आ जाती है जैसे फिर भी नहीं रुकती उसकी हँसी, अब लोग भी 'पगली' कह देते पर बुरा अब भी नहीं लगता उसे। एक ही फर्क़ है, जो कोई नहीं समझता, कभी खुशियाँ बरसा करती थीं अब बहता है दर्द, बिखरे सपनों का, अधूरी ख्वाहिशों का ! ©Vinita Surana Kiran

आसान नहीं होता पंछी होना !

आसान नहीं होता अपने ही बनाये कफ़स को तोड़ना ! और किसी दिन तोड़ भी दिया तो क्या आसान होगा, अपने निढाल पंखों को झाड़कर उड़ जाना खुले आसमान में ? पंछी होने का ख़्वाब सुखद होगा पर पंछी होना ... हाँ आसान तो नहीं होता उन्मुक्त पंछी हो जाना, ख़ासकर तब जब कफ़स को ख़ुद ही चुना हो ! सुनो, अब ये दलील कौन सुनेगा, कि तुम्हें दाने डालकर फंसा लिया बहेलिए ने, वो भी बड़े प्यार से ? ©विनीता सुराणा किरण