क्या सचमुच मुमकिन है ?
क्या सचमुच मुमकिन है तुम्हारा स्पर्श देह से होकर न गुज़रे और सीधे मन को सहलाए... क्या सचमुच मुमकिन है तपिश मुहब्बत की बिना जलाए रूह तक गर्माहट ले आए... क्या सचमुच मुमकिन है शब्दों से परे इक इबारत आँखें लिखें और आँखें ही पढ़ लें... सुनो , अगर मुमकिन हो ये सब तो आओ और लिख दो अपना नाम मेरी हथेली पर अपने लबो से ! ©विनीता सुराणा किरण