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Showing posts from July, 2018

श्वेत-श्याम

"मुझे बस दो ही रंगों से लगाव था ...काला और सफ़ेद ... पर हाँ जब माँ ज़िद करती तो नीला शर्ट ले लिया करता मगर इनसे इतर कभी कोई रंग न लिया ।" उसने कहा मैंने तपाक से सवाल दाग दिया, "अच्छा ! मगर बाकी रंगों से बेरुख़ी क्यों ? सोचो अगर सारी दुनिया श्वेत-श्याम ही होती तो क्या इतनी ख़ूबसूरत होती ?" "तो तुम्हें लगता है ये सारी क़ायनात रंगों से सजी है इसीलिए सुन्दर है ? कभी धुंध में रंगों को ढूंढना या रात में बिखरी चाँदनी में ... अक़्सर मेरे स्कैच सफ़ेद कोरे कागज़ पर पेंसिल से उकेरे हुए आड़ी-तिरछी रेखाओं के जाल से अधिक कुछ नहीं रहे मगर तुमने कितने एहसास पढ़ लिए उनमें और शब्दों में ढाल दिया । तुमने कभी उनमें रंग भरने को नहीं कहा मुझे ... तुम्हें भी तो आम लड़कियों की तरह रंग-बिरंगी लीपा-पोती पसंद नहीं है न ? न कभी नाख़ून रंगते देखा तुम्हें न लिपस्टिक होंठों पर फिर भी जब एक बारगी नज़र पड़ती, हटाने को जी नहीं करता । हाँ तुम सब रंग पहनती हो और तुम पर सभी फबते भी होंगे मगर यक़ीन मानो तुम्हारे वस्त्रों पर एक सरसरी निगाह भर डालकर मेरी आँखें बस तुम्हारे हिलते होंठों पर और कान तुम्हारी मीठी आवा

प्रकृति से मुलाक़ात महाबलेश्वर में

प्रकृति को क़रीब से महसूस करना हो तो पहाड़ों से बेहतर कोई जगह नहीं ! यूँ तो समुद्र और उसके तट पर अठखेलियां करती धवल लहरें भी कम नहीं लुभाती और वो नम और नर्म रेत जब लाड़ से सहलाती है तो लगता है प्रकृति ने रेशमी आँचल लहराया और अपनी नाज़ुक गिरफ्त में समेट लिया । प्रकृति का एक और रूप रेगिस्तानी रेत भी तो है दिन में तपती रेत जब शाम ढलने के साथ ही शीतल हवा के साज़ पर थिरकती है तो अद्भुत एहसास होता है ... दूर-दूर तक फैला वीराना भी संगीतमय हो जाता है।       बचपन से शहर में पली-बढ़ी मगर तसव्वुर में हमेशा पहाड़ आते जब भी पेंसिल या ब्रश उठाती कुछ भी उकेरने को । जब nature विषय दिया गया ड्राइंग के लिए सबसे पहले पहाड़, पेड़ और नदी, पहाड़ों के पीछे से उगता हुआ सूरज ही उकेरा होगा । फिर धीरे-धीरे कुछ फूल उग आए उन पेड़ों पर और उनका अक्स पहाड़ी नदी के आँचल पर उकेरा गया । वह बचपन का आकर्षण कब जुनून बन गया ये एहसास महाबलेश्वर जाकर हुआ, हालांकि उससे पहले नैनीताल, मसूरी, मनाली(पहली ट्रिप) में पहाड़ों से मुलाक़ात हो चुकी थी मगर तब घनिष्टता न हो पायी, कारण कई रहे जिन पर बात फिर कभी ... मगर प्रेम के बीज रोपित तो हो ही चुके

तुम्हारा वाला 'प्रेम'

अब्र बेचैन से धीरे-धीरे सरकते जा रहे जैसे निकल जाना चाहते हों नज़र बचाकर बिन बरसे, हवा अनमनी सी आकर सहलाती तो है मगर वो मख़मली एहसास नदारद है... कुछ तो रडक रहा है मन में जैसे कोई फांस चुभी हो अनदेखी .. अनजानी सी पगडंडी से गुज़रते हुए अक्सर छूट जाती हैं कुछ निशानियाँ बे-ईरादा तो कुछ अनचाहे, अजनबी एहसास उलझ जाते हैं उड़ते दुपट्टे में । तुम्हारे-मेरे बीच से गुज़रा है वक़्त का एक बहुत लंबा कारवाँ, मेरे छोर से तुम्हारे छोर तक आते-आते वक़्त ने 20 साल खर्च कर दिए । अब उम्र का ये फ़ासला यूँ जड़ें जमा बैठा है मन में कि कभी संभव नहीं हुआ प्रेम का बीज अपने लिए जरूरी खाद-पानी-वायु ले पाता । खरपतवार सी उग आयी है, बंजर हो चली ज़मीन में नमी भी सतह पर ठहर जाती है तब तुम ही कहो कैसे कह दूं "हाँ मुझे भी इंतज़ार था, मैं भी महसूस करना चाहती थी डूब कर, तुम्हारा वाला "प्रेम" !"           "तुमसे बात करके क्या नींद आती है ... कोई ख़्वाब नहीं, कोई बेचैनी नहीं, कोई सवाल भी नहीं ... जैसे आख़िरी परीक्षा का पर्चा हल करके आने वाली सुकून की नींद...", मुस्कुराते हुए तुम्हारा कहना एक अजीब सी ख़ुशी देत

कुछ देर और ठहर

पलंग के दायीं ओर वाले दरीचों पर सहर की महीन सी दस्तक, अलसाये से कमरे में कुछ परछाइयाँ देखते ही देखते लुप्त हो जाती हैं । मीठी नींद की ख़ुमारी, लाल डोरियां आंखों में, उस पर घुल जाता है हया का रंग जैसे गुलाबी गुलाल उड़ाया हो नाज़ुक हाथों ने,  बीती रात की मदहोशी में बेपरवाह छूटी निशानियां बिखरी पड़ी हैं रेशमी चादर की सिलवटों में, घिसे हुए कालीन के उधड़ते रुओं में कहीं अटके हैं इक्के दुक्के बाल, आधे भरे गिलास में पानी ही था न तो फिर कल रात वो सुरूर, वो मदहोशी ? गुलाबी आंखों में अलसुबह सैर को निकला ख़्वाब आख़िरी कुछ लम्हों को कब्ज़ाने के लालच में आख़िर आ ही जाता हैं गिरफ्त में ...झेंप जाता हैं जैसे चोरी पकड़ी गई हो। हाँ बड़े शातिर चोर होते हैं ये ख़्वाब ... चुपके से घुसपैंठ करते है रात की चादर में छुपते-छुपाते और जाने कब मन पर वशीकरण कर अपनी ही धुन पर झूमने को विवश कर देते।     सुब्ह का संगीत बेशक़ ख़ुशनुमा होता पर सुनो मुझे तो रात की ख़ामोश धुन ही पसंद है। वो तन्हाई, तन्हाई में लिपटा सुकून, सुकून में घुली मदहोशी ... शाम के कोमल रंगों को दामन में सजाएं प्रेयसी रात जाने कैसी मय घोल देती है उस सादे पानी मे