एहसासों में हम
पेंसिल की हरारत कागज़ पर होती रही, एक लम्हा जो मुसाफ़िर सा एक अरसे से ठहरा था चित्त की गहराइयों में, आख़िर जगह पा ही गया । उसने कहा, "सुनो, जाने क्यों इसे बनाकर कोई ख़ुशी नहीं हुई, मन उदासीन है जैसे कुछ अधूरा है ..."। "हाँ क्योंकि इसमें तुम तो हो ही नहीं, तुम्हारी महसूसियत भी दबी सी कुनमुना रही है, लकीरों में उलझे तुम उस एहसास को उकेर रहे थे मगर ये भूल गए कि वो तुम्हारा था ।" "तुम भी तो शब्दों को तन्हा कर बिसरा बैठी हो, कोरे से कागज़ क्या कभी आहिस्ता से पुकारते नहीं रात की नीरवता में ?" "हाँ उनकी कसमसाहट महसूस होती है पर वो पुकारते नहीं मुझे क्योंकि जानते हैं ये दूरी यूँ ही नहीं है । पतझड़ का आना जरूरी था कुछ बचे हुए पुर्ज़े जो अटके थे , आख़िर नए खतों में पुराने एहसास कब तक बिखेर सकती थी? सुनो, तुमसे हर मुलाक़ात और हमारे बीच ये कहे-अनकहे शब्दों का गुंजन ... कितने ही गीतों की भूमिका लिखा करते हैं। " "तो चलो पतझड़ को हमारे अहाते के द्वार तक छोड़ आते हैं आख़िर मेहमान को कभी तो जाना ही होगा... ये घर है हमारा मुसाफिरखाना नहीं !" उसकी बेसब्र सी गुज़