Posts

Showing posts from April, 2017

देसी टॉम क्रूज़ !

"तुझे पता है,,,, आज लाइब्रेरी में कौन दिखा मुझे ?" "नहीं पता तो नहीं है ...पर तू बता ही देगी, वरना तेरा पेट दर्द नहीं हो जाएगा... हाहाहा" "हाँ यार सच्ची !!! आज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी गयी थी एक सीनियर से नोट्स लेने तो क्या देखती हूँ 'वो' बैठा है सामने और ये मोटी-मोटी किताबें ...मुझे पता ही था कुछ तो है जो दिखता नहीं वरना इतना हैंडसम बंदा क्या बस चलाएगा खाली ?" "तू किसकी बात कर रही है यार ये गोल-गोल जलेबियाँ बनाकर ??" "अरे वही 'टॉम क्रूज़' अपना देसी वाला !! तू भी न ! रोज तो मिलता है 9 नम्बर बस में ..." "हे भगवान ! वो तेरा हीरो .. हाहाहा ... अच्छा तो मतलब वो यूनिवर्सिटी स्टूडेंट है ... चल कम से कम पढ़ा लिखा तो है, और कुछ नहीं तो तुझे उसको देखकर ही पढ़ाई में इंटरेस्ट आ जाए शायद ... ह ह ह " "वो ट्यूशन दे तो मैं पक्का टॉप करूँगी ..हाहाहा" "सही है लगी रह तू और अब मुझे बख्श दे बहन, मुझे नहीं लेनी उससे ट्यूशन, तो पढ़ लूँ तू कहे तो अब ..." "हाय रे ! पत्थर का दिल है तेरा, किसी के लिए कभी धड़केगा

आगे वाली सीट

अपने स्टॉप से आज फिर बस में चढ़ते ही निगाह सीधे आगे की सीट पर पड़ी । वह आज भी वही बैठा हुआ था पहली सीट पर खिड़की के पास वाली ... ये भी जानती थी बस 3 स्टॉप और फिर उसी सीट पर कोई और बैठी होगी, वही जिसके लिए हर रोज वह सीट रोकता है । बस के पहले स्टॉप से चढ़ने वाला वह लड़का दो टिकट लेता था रोज, एक कॉमर्स कॉलेज तक की खुद के लिए और दूसरी महारानी कॉलेज तक की उस लड़की के लिए जिसे यूनिवर्सिटी से चढ़ते ही वह अपनी सीट दे देता था और साथ ही उसका बस टिकट भी (अपने स्टॉप पर दिखाना होता था न कंडक्टर को) जाने कब ये सिलसिला शुरू हुआ नहीं जानती मैं पर एक ख़ूबसूरत मोड़ की मैं साक्षी रही उस दिन जब मैं बस में चढ़ी और आगे की दोनों सीटों पर उन दोनों को हाथों में हाथ लिए खिलखिलाते देखा । उस दिन के बाद ज़रूरत जो नहीं  रही किसी एक को दूसरे के लिए सीट रोकने की... और हाँ वो कलाइयों में दमकता लाल चूड़ा बेहद मनमोहक था ❤ ©विनीता सुराना किरण

चोरी-चुपके

अरसे पहले ज़मींदारी समाप्त हुई तो बिरजू को भी एक छोटा टुकड़ा ज़मीन का मिला, पर बंजर, ऊपर से पानी का कोई स्रोत नहीं । वर्षों की अथक मेहनत और सरकारी सहायता से कुछ संसाधन जुटा कर खेती शुरू की और समय आने पर फसल लहलहाई । सारा परिवार ख़ुशी में डूबा हुआ था और ऐसे में जमींदार के घर से न्यौता आया सहभोज का । सभी ख़ुशी-ख़ुशी कुछ न कुछ ले गए अपनी ओर से सहभोज में , छक कर खाया, गाना बजाना हुआ, खूब नाचा बिरजू भी गाँव वालों के साथ और नशे में धुत्त, आकर घर में सो गया, खलिहान की चौकसी भी भूल गया । सुबह कुछ छेड़छाड़ सी लगी खलिहान में पर  किसी जानवर की करतूत समझ खुद को कोसा खुद की लापरवाही के लिए और जुट गया फिर अपने काम में। यही हाल सारे गाँव का था पर दोष किसे देते , सारा गाँव तो साथ ही था रात भर,  उधर ज़मींदार के खलिहान महक रहे थे नए अनाज की खुशबू से, वो भी मुफ़्त का ! ©विनीता सुराना किरण

नाकाम कोशिश

वक़्त करता रहा कोशिश उम्र की तहों में दबाने की, मगर ज़िद्दी यादें आकर हर रात खुरचती रहीं थोड़ा-थोड़ा, जाने कब कटने लगी तहें और बाहर सरक आये कुछ जबरन दबाए गए 'अहसास' ... रुक जा कुछ देर तो वक़्त फिर चढ़ा देना एक परत उम्र की, बस एक गहरी सांस भर लेने दे जो काफी हो तब तक , जब तक फिर से करें ये अहसास , तेरी क़ैद से भागने की एक नाकाम कोशिश ! ©विनीता सुराना किरण

इत्तेफाक़ !

"अरे तुम यहाँ ! इस समय ?" "तुम सवाल बहुत करती हो , चलो अब बैठो बाइक पर.." "हम्म, ठीक है पर तुम इस समय कैसे, ये तो बताओ... तुम तो लंच के लिए 2 बजे जाते हो घर और अभी तो 4 बजे है, आज देर कैसे हो गयी ?" "हाँ आज देर हो गयी, फिर सोचा तुम्हारा भी घर जाने का समय हो गया तो तुम्हें घर छोड़ते हुए निकल जाऊँगा..." "आज मेरा व्रत भी है.. भूख भी लगी है पर बेकार तुमने लंबा चक्कर लिया, तुम्हें भी तो भूख लगी होगी ? सीधे घर चले जाते" "अच्छा आज सोमवार है क्या? मुझे तो ध्यान ही नहीं था । फिर तो अच्छा हुआ न, मैं आ गया ? बस में तो एक घंटा और लगता तुम्हें और मैं 10 मिनट में पहुँचा दूंगा", उसने मुस्कुराते हुए कहा ।        उसके बाद हर सोमवार उसे लंच के लिए निकलने में देर हो जाती और वो 4 बजे उसे घर छोड़ते हुए ही अपने घर जाता। अजीब इत्तेफाक़ था!   #किस्सा_ए_कॉलेज_प्रेम_कथाएं