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Showing posts from April, 2014

ग़ज़ल

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बिखरते है संवरते है दिलों में फिर भी पलते हैं ये ख़्वाबों के परिंदे है उड़ाने रोज़ भरते हैं संभाले है मरासिम ये बहुत अरमान से लेकिन दुखाते हैं बहुत दिल को कभी जब वार करते हैं कभी वादे किये तुमने भुला बैठे हो पल भर में भरम ये जो वफ़ा का है न टूटे अब यूँ डरते हैं धड़कने से अगर दिल के यकीं हो जाए जीने का संभालो दिल तुम्हें दे के चलो हम आज मरते हैं ख़ुशी के चार पल काफ़ी गमों के जब अँधेरे हो ‘ किरण ’ इक आस की चमके हज़ारों दीप जलते हैं ©विनिता सुराना 'किरण' 

किताब (नज़्म)

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पन्ने दर पन्ने खुलते कुछ अनकहे कुछ अनजाने कुछ अपने कुछ बेगाने से एहसास सिमटी है पूरी कायनात सियाह-ओ-सफ़ेद हर्फ़ों में कुछ अलफ़ाज़ मुहब्बत के कुछ कतरे दर्द के किस्से दोस्ती के बेवफ़ाई के सिमटी है यादें महकती सी सिसकती सी अबूझ सी पहेलियाँ कल की अधखिली ख्वाहिशें अधूरे ख्व़ाब क़लमबंद है सभी कुछ मगर कब पढ़ पाए हम वक़्त से पहले जो तय किया उस क़लमकार ने क्यूंकि वही तो क़लमकश है वही कारसाज़ भी उस 'किताब' का जिसे कहते है 'ज़िन्दगी' | ©विनिता सुराना 'किरण'

तुम क्यूँ नहीं पास हमारे ?

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ख़ामोश रात, चाँदनी उदास पूछ रहे हैं गुमसुम तारें तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? बहके जज़्बात, उलझे एहसास तन्हा से दिखते सभी नज़ारे तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? नम हैं आँखें, साँसें विरहन ग़मगीन हवा बस तुम्हें पुकारे तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? गुम हैं नींदें, उजड़े ख्वाब शाखों से बिछड़े पत्ते सारे तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? विछोह ये कैसा, कैसी प्यास? महक भी रूठी गुलों से प्यारे तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? थमी सी लहरें, पसरी तनहाई ओझल हो गए मिलन के धारे तुम क्यूँ नहीं पास हमारे? ©विनिता सुराना 'किरण'

वो महक सौंधी सी

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गीली मिट्टी सी हर दिन ढलती रही लेती रही एक नया रूप जीवन के चाक पर बदलते रहे हाथ गढ़ते रहे नए रिश्ते जिन्हें समझ के अपना करती रही समर्पण...... नासमझ थी तुम कहाँ समझ पायी सुराही का साथ भी भाता है प्यास तक दो घड़ी ठहरे पथिक पर अधिकार नहीं वृक्ष का...... मिल जाने दो इस मिट्टी को अब समय की धारा में बहने दो फिर से उसी तरह उन्मुक्त और निश्छल बिखरने दो फिर वही सौंधी सी कच्ची सी महक...... ©विनिता सुराना 'किरण'

ग़ज़ल

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ये तुम्हारे न ही हमारे हैं रौशनी बाँटते सितारे हैं बंद मुट्ठी ज़रा खुली देखी पंख ख्वाबों ने फिर पसारे हैं वक़्त लिखता रहा फ़साने यूँ रेत के सब मगर वो धारे हैं कब मुलाक़ात हो न जाने अब दो घड़ी के सभी सहारे हैं है अंधेरों से डर भला कैसा इक 'किरण' से अँधेरे हारे हैं ©विनिता सुराना 'किरण'

ग़ज़ल

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हासिले गम ही रही गर जिंदगी मुस्कुरा ले भूल जा उफ़्तादगी है हुनर जब हाथ में क्यूँ दरबदर ढूंढता तू फिर रहा कारिंदगी मात देकर दूसरों को खुश हुआ जीत ले जो खुद को तो है उम्दगी है चलन माना दिखावे का बहुत सुर्खरू फिर भी लगे है सादगी हो खुलापन दोस्तों में ठीक है चाहिए गैरों से कुछ पोशीदगी वो हँसी जो दिल किसी का तोड़ दे उस हँसी से अच्छी है संजीदगी हासिले मंजिल नहीं आसां ‘किरण’ रुक नहीं अब चल दिखा आमादगी ©विनिता सुराना ‘किरण’ उफ़्तादगी - आपत्ति, शिकायत कारिंदगी – नौकरी , उम्दगी – श्रेष्ठता , सुर्खरू –सम्मानित , पोशीदगी- छिपाव , आमादगी – तत्परता

ग़ज़ल (तन्हा सी )

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गुमसुम गुमसुम रात ढली है तन्हा सी दुल्हन बिन श्रृंगार लगी है तन्हा सी होम हुई है यादें तेरी सब लेकिन पलकों में इक याद जली है तन्हा सी अपना मिलना पल दो पल का ख्वाब रहा मन में फिर भी आस पली है तन्हा सी कसमें रस्में बेजां सी सब लगती है परछाई भी आज खड़ी है तन्हा सी बाँट सके खुशियाँ अपनो औ ' गैरों में सोच ' किरण ' लेकर जीती है तन्हा सी © विनिता सुराना ' किरण '