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Showing posts from July, 2016

मज़्मून

जानती हूँ ! कोई लिखता नहीं है ख़त आजकल पर मेरा शौक़ है ख़त लिखना.... आसाँ होता है इन ख़तों में, दिल में उमड़ते हर जज़्बात को अल्फ़ाज़ देना, गिले-शिक़वे स्याही के साथ बहा देना, किसी अज़ीज़ को बिन बताये आवाज़ देना, ये ख़ुशबू भरे ख़त तो ज़रिया हैं तन्हाई के सुलगते लम्हों में किसी को याद कर मुस्कुराने का, संभाल कर रखे ये ख़त मुद्दतों बाद भी महफूज़ रखेंगे यादों की भीनी ख़ुशबू, हर्फ़-हर्फ़ में महकेंगे कुछ अनछुए एहसास और याद दिलाएंगे मुझे कि मेरे लिखे हर इक ख़त का मज़्मून 'तुम' हो ! ©विनीता सुराना 'किरण'

मुहब्बत

क्या कहूँ तुमसे... हाँ सच है ये दरमियाँ हमारे कुछ भी नहीं, न लफ़्ज़ों के पुल न ख़्वाहिश की डोरी न रिश्तों की बंदिश न रस्मों के बंधन, मगर फिर ये कैसी कशिश है बताओ ज़रा, इसे नाम दूँ क्या, इसे मैं कहूँ क्या? बेनाम हसरत अधूरी कहानी न तुमने सुनी और न हमने ही जानी शायद इसी को कहा है किसी ने मुहब्बत मुहब्बत हाँ बस मुहब्बत ! ©विनिता सुराना किरण

Soul mate (poem 6)

With every passing moment We've come closer There are so many feelings I'm unable to express, Yet I can unfailingly feel Your presence around me As if ethos have painted Some letters on winds Which cling to me unexpectedly Every night, Some entrancing visuals Wound up in my eyes As dreams, Every dream is like a living and throbbing love letter, every word immersed in the ink of romanticism Hums its way to touch my psyche I'm ignited from inside Losing all senses And I caress My wet earth gently To feel 'You' and your nourishing touch ... हर गुज़रते लम्हे के साथ हम कुछ और क़रीब आएं कितने अहसास जो बयाँ नहीं कर पाती मैं, मगर शिद्दत से महसूस करती हूँ तुम्हारा 'होना' मेरे इर्द-गिर्द, जैसे क़ुदरत ने उकेरे हों कुछ हर्फ़ हवाओं पर, जो लिपट जाते हैं मुझसे बेसाख़्ता हर रात , कुछ नक़्श दिलकश सिमट जाते हैं आँखों में बनकर ख़्वाब, हर ख़्वाब जैसे जीता-जागता, धड़कता प्रेम-पत्र, जिसका हर लफ़्ज़ रुमानियत की स्याही में भीगा गुनगुनाता हुआ सीधे छू

काश !

काश ! काश तुम लौट आओ किसी दिन यूँ ही, जैसे अचानक चले गए थे बिना कुछ कहे-सुने, यहीं मिलूँगी तुम्हें इसी मोड़ पर जहाँ शाम ने साथ छोड़ा शब गहराई पर फिर कभी सहर न आ पायी.. ऐसा भी नहीं कि मैं रुक गयी थी तुम्हारे चले जाने से, पर ये भी सच है ज्यादा दूर न जा सकी, बार-बार मुड़ के देखती रही, शायद तुम लौट आओ, उम्र भर के लिए नहीं, कुछ पल के लिए सही, बस इक आख़िरी मुलाक़ात के लिए ... जानती हूँ यूँ भी सबको कहाँ होता है हासिल इक मुक़म्मल जहां ! © विनीता सुराना किरण

गोदना

हर सुबह मेरी हथेली पर लिखा अपना नाम देख ख़ुश हुआ करते थे, फ़िर एक दिन जब नहीं दिखा, तुमने आसानी से सोच लिया मैं भूल गयी, कुछ कहा नहीं तुमने, बस एक चुप्पी ओढ़ ली ये चुप्पी ख़ामोशी, ख़ामोशी बेपरवाही, बेपरवाही कब दूरी बनी याद नहीं.. मैं नासमझ यही सोचती रही, किसी दिन तो मेरे मन पर गुदा वो गहरी नीली स्याही का स्थायी वाला गोदना देख पाओगे जिस में चमकता है तुम्हारा नाम ! ©विनीता सुराना 'किरण'

ख़्वाबगाह

जब साज़िश करे नफ़रत तो सहम जाती है मुहब्बत पर रुकती नहीं, हारती भी नहीं, जज़्ब करके सारा विष बस उगलती है अमृत... क्यूँकि तूफ़ान आए तो लहरें होती हैं वाचाल समुन्दर तो वही है धीर-गंभीर और स्नेहिल आख़िर नदियों की ख़्वाबगाह जो है ! ©विनीता सुराना किरण

हाँ यूँ ही याद आते हो 'तुम' !

जाने क्यूँ इतना याद आते हो 'तुम' ये कैसी कशिश है, कैसा है जादू, कि साथ न होकर भी अपने होने का अहसास जगाते हो 'तुम' ! रात-रात भर जागती हैं आँखें यूँ तो, पर पलक जो झपकी पल भर को, मीठा सा ख़्वाब रख जाते हो 'तुम' ! जाने कब हो हासिल-ए-मंज़िल, मुक़म्मल हो ये तलाश सदियों की.. हाँ मगर, मेरी तन्हाइयों में अक़्सर गुनगुनाते हो तुम ! यूँ ही बार-बार याद आते हो 'तुम' ! ©विनीता सुराना किरण