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Showing posts from January, 2020

मैं बस एक लम्हा

तुम सदियाँ हो और मैं .. मैं बस एक लम्हा  तुम चिर बसंत और मैं ... मैं खुशबू सी अधीर तुम ठहरते नहीं और मैं .. मैं पड़ाव पर अटका मुसाफ़िर चलो जाने दो मेरी बात आबाद रहो  कतरा भर ही सही, मुझमें रहो ! ©विनीता किरण 

गुल जो चहका करते हैं

अक्सर रुक कर देखा है चलते-चलते राहों में  गुल जो चहका करते हैं  डाल-डाल की बाहों में। इश्क़ जुनूँ है परों पे काबिज़ मंद हुलसती हवा की थिरकन। सुनती हूँ दिल थामे अब भी ज़मींदोज़ पत्तों की धड़कन। सज़दे में झुकते हैं या फिर  हैं अलमस्त पनाहों में। गुल जो चहका करते हैं डाल-डाल की बाहों में। तुम संग हर इक रुत बासंती तुम बिन हर मौसम है पतझड़ क्या गुल, क्या पत्ते, क्या बूटे गीत तुम्हारे सभी हैं अनगढ़। विरही हैं या हैं वैरागी, सदियों से किसकी चाहों में। गुल जो चहका करते हैं डाल-डाल की बाहों में। ❤️ किरण

दस्तक न देना तुम ख़्वाब

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तुम जो बदले, बदल गए मौसम। हम थे तन्हा, वही रहे हरदम। वो अब्र जो तेरे आने का पैगाम लाते थे कभी, आज उदास से लगे मुझे, रो भी देते शायद पर तुझ सा सब्र साथ लाये थे... शायद किसी की यादों का बोझ लिए भटक रहे थे ज़र्द से आसमान की शुष्क ज़मी पर ! हाँ बोझिल सी लगती हैं वो यादें जिन्हें आधे-अधूरे मन से  गढ़ तो लेते हैं पर जज़्ब नहीं करते दिल में ...  जाने क्यों मुझे देख कर उतर आए और बोले, "सुनो कोई ख़्वाब मत बोना वरना सोख लेगा ये नमी भी तुम्हारी और फिर उम्र भर खरोचेगा यादों की ख़ुश्की से, रीते से दिल पर ये खरोंचे बेचैनी और चीरण के सिवाय कुछ नहीं देंगी ।"      बेहद सर्द ये शाम तुम्हारे जतन से लगाए अलाव की आंच से पिघला करती थी कभी, आज बहुत तन्हा सी लगी ... शायद एक और रतजगे का आभास था इसे भी , बेचैन करवटों और ठिठुरन से पगा । आज की रात में नहीं घुलेगी तुम्हारी गर्म सांसें और जम जाएंगे सारे ख़्वाब जो भूले से भी दस्तक देंगे इसकी दहलीज़ पर ... नादाँ होते हैं न ये ख़्वाब, कहाँ समझते हैं कि हर ख़्वाब नहीं महकता यादों में , कि यादें भी बोझिल हुआ करती हैं , है न ? #सुन_रहे_हो_न_तुम

चिरयुवा_प्रेम

"सुनो बहुत याद आती हैं वो सब बातें ... वो साझा सपने और उनमें ज़िंदा हम .." "मत याद दिलाओ, मत दिखाओ वो सपने .." "जिन्हें देख लिया उन्हें क्या दिखाऊँ, क्या याद दिलाऊँ.. खैर नहीं कहूंगी अब कुछ भी .." उसे अनमना सा देख वो भी उदास हो जाया करती पर क्या करती आखिर उन सपनों का जो इबारत की तरह लिखे हुए थे दिल पर और बेग़ैरत वक़्त भी नहीं मिटा पाया जिन्हें ... हर गुज़रते पल में सपनों से बुना वो पुल तड़क रहा था धीरे-धीरे और हर छिटकती किरचन उठा रही थी एक दीवार उनके बीच ...  यही नियति थी शायद उस बेमेल मोहब्बत की ! तो क्या हुआ कि उसका प्रेमिल मन सालों बाद भी उन गलियों में ठहरा हुआ था जहाँ वो अपनी उम्र को पीछे छोड़ आयी थी.....  जाने क्यों वो सपने न कभी टूटे, न बोझिल हुए बस अपनी महक से भिगोते रहे और फिर एक दिन अपने साथ ही ले गयी वो उन्हें .... 

पहला ख़त

"वो जो खत लिखा था उस ठिठुरती रात में खुले आसमान के नीचे, अपनी गाड़ी की छत पर बैठकर और देने आए थे मुझे... मैं ले नहीं पायी तुमसे, बस झरती रहीं आंखें और बांध कर अपने कदम, रोके रही खुद को, कि कहीं दौड़कर तुमसे लिपट न जाऊं। लाज़मी था कि हम मिलते और खूब रोते पर डर ये भी था कि वो पहली मुलाकात आखिरी मुलाकात में तब्दील होने से पहले कड़वाहट न भर दे तुम्हारे मन में प्यार के लिए.. वो खत जिसे कबसे अपने वॉलेट में छुपा कर रखे हो, अब भी भीनी सी महक उठती होगी उसमें से, जब खोलते हो वॉलेट, क्या क भी दोगे मुझे वो खत ?" "हाँ इस बार जब मिलोगी, पक्का दे दूंगा और फिर दूसरा खत लिखूंगा और करूँगा इंतज़ार अगली मुलाकात का ताकि तुम्हारे हाथों को थाम सकूँ वो खत देने के बहाने .. " उफ्फ़ ये खत और तुम्हारा इंतज़ार ! कभी लगता है तुम्हारे साथ ये सफ़र बस इंतज़ार ही तो है ..पर जाने क्यों बुरा नहीं लगता ये लंबा इंतज़ार भी ...उस पार एक मुलाकात जो होती है हर बार  😊 # सुन_रहे_हो_न_तुम

पन्ना बदल गया

जाने क्यों लगने लगा है हर गुज़रते पल के साथ गुज़र रही हूं मैं भी और ये गुज़रना मुझे तुमसे दूर ले जा रहा है ज़िन्दगी .. जाने कब कौनसी मुलाकात आखिरी हो, ये सोचकर हर पल खोना नहीं चाहती खुद को, तुम को पर ये भी जानती हूं कुछ भी टलता नहीं अनिश्चित काल तक । उसे जाना ही था एक दिन और वो चला गया, रह गए वो ख्वाब जो अनजाने ही जुड़ते गए, इस कदर कि अब भी रोशन हैं मेरी दुनिया ...वो चांद सा रोशन है मेरे जहां में बस छू ही तो नहीं सकती उसे ... सुना है एक और पन्ना बदल गया कैलेंडर का मगर न मैं बदली न तुम .. छू लो न एक बार फिर मुझे प्यार से ऐ ज़िन्दगी  🤗 # सुन_रहे_हो_न_तुम

गंगा मैया

शाम के धुंधलके में दूर बालकनी से लक्ष्मण झूले को रोशनी में नहाए देखना अद्भुत अनुभव था । मंद-मंद बहती हवा और गंगा की लहरों पर नृत्य करती रोशनी सम्मोहित कर रही थी और दे रही थी मौन निमंत्रण मानो कह रही हो, "चली आओ कि आज उत्सव है प्रेम का !" हाँ प्रेम ही तो पुकार रहा था ...ऋषिकेश से प्रेम, गंगा से प्रेम, नदी से प्रेम, कहीं वेग तो कहीं मदमाती जलधारा से प्रेम, कुदरत की हर उस शै से प्रेम जो दिल को सुकून देती है । वह सुकून जो मानव निर्मित शायद ही कोई वस्तु या कृति दे पाती है , वह चार दीवारी भी नहीं जिसे घर कहते हैं । अंततः घर भी एक सीमा में बांधता है , बस कुदरत ही है जो आज़ाद कर देती है, पर हमने जाने कितने बंधनों में बांधना जारी रखा है उसी कुदरत को ... कहीं पहाड़ों की छाती काटकर रास्ते बना दिये तो कहीं नदियों का वेग रोक कर बांध, निर्मल पहाड़ी झरनों को भी कहीं न कहीं गिरफ्त में ले ही लिया (कभी मसूरी का उन्मुक्त कैम्पटी फॉल इस बार एक झरने से कुंड बन कर अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ ) अपने ख्यालों की बेचैनी से निजात पाने क़दम गंगा की ओर बढ़ चले थे, लक्ष्मण झूले को पार कर दूसरी तरफ

अधूरे से हम

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अधूरे से तुम थे, अधूरे से हम थे सब कुछ अधूरा ही तो है .. पूरा होना भी न कोई एहसास पूरा न कोई रिश्ता पूरा हर कहीं गुंजाइश है कुछ और पूरा होने की कुछ और पाने की कुछ और खोने की बिखरने की और सिमटने की हर पल बदलता है कुछ और होने को कभी अपने में सिमट जाते तो कभी अनायास ही भीग जाती हैं पलकें किसी अनजाने के दर्द से यही अधूरा होना तो ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है तुम और मैं 'हम' हुए तब भी अधूरे ही रहे तभी तो जुड़ पाए जाने कितने और एहसास हमारे बीच उग आयी पूरी एक पौध रिश्तों की हम भी कहाँ एक रिश्ते तक सीमित रहे कितने किरदार बदले हैं इस सफ़र में कभी अनजान हमसफ़र से दोस्त, मनमीत से प्रीत कभी नादाँ ठिठोली से गंभीर विमर्श तो कभी बेवजह की गलतफहमियां ..... अगर ये अधूरापन न होता तो क्या तलाशते अपने भीतर न कोई ख़्वाहिश होती, न आरज़ू कुछ पाने की न डर कुछ खोने का , न ख़ुशी कुछ खोकर पाने की फिर क्या ख़ाक जीते हम ! अधूरे हैं तो ज़िंदा हैं ... हैं न ? 💓 किरण

कुदरत के जलवे निराले हैं !

3 घंटे से ज्यादा का सफ़र हो और भोर से पहले पहुँचना हो तो रात 2 बजे निकलना ही था लोविना बीच के लिए .. हम चार दोस्त बड़ी सी टैक्सी में , कुछ देर बतियाये फिर सब सो गए पर पूरी रात की जागी मेरी आँखों में नींद नहीं थी । ऐसा नहीं कि पहले कभी भोर की पहली किरण से रूबरू नहीं हुई पर हर दिन ये अनुभव अलग होता है, ऐसा मेरा अनुभव रहा है चाहे स्थान न बदले, रुत न बदले पर ये जो कुदरत है, इसके जलवे ही निराले हैं ।             घुप्प अंधेरे से छेड़छाड़ करती टैक्सी की हेडलाइट और खिड़की  से बाहर आंखें गड़ाए मैं उन रास्तों को जानने पहचानने की कोशिश कर रही थी जो हमें एक अद्भुत अनुभव की ओर ले जा रहे थे। बस्ती थी कोई, और कुछ आकृतियां भी दिखीं (मेरी जैसी अतृप्त आत्माएं होंगी शायद  😜 ) उस रात चाँद भी पूरे रुआब के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहा था और हम बढ़ रहे थे एक संकरी सी सड़क पर लगातार । अनजान देश के अनजान शहर और एक अनजान टैक्सी ड्राइवर के भरोसे, पर जाने क्यों बाली बिल्कुल अपना सा लगा पहले क़दम के साथ ही । भाषा की दिक्कत तो थी मगर हम इंसानों में ये ख़ूबी तो है ही कि जरूरत के अनुसार ढल ही जाते हैं हम और जुगाड़ में तो