मेरे वाले सिरे से तुम्हारे वाले सिरे तक हर रोज बनाते हैं हम कितनी बातों के पुल फिर छोड़ देते हैं कुछ धागे खुले बस यूँ ही, कुछ अनछुए एहसास मोतियों से पिरोये हुए उनमें । न न ...मेरा कोई इरादा नहीं माला गूँथने का, मन नहीं करता ख़्वाहिश तुम्हें बाँध कर रखने की, तुम पसंद हो आज़ाद पंछी से ही, एक टुकड़ा आसमान जो परों पर लेकर उड़ता है, पूरे आसमान की चाहत में .. यक़ीन मानो, ये हर दिन बनने वाले नित नए पुल रुकने नहीं देते मेरे भीतर बहती नदी को बस गुज़रती चलती है वो और मैं बहती हूँ उसके साथ, पर जानते हो फिर भी ये सुकून रहता है कि पुल के उस पार एक सिरे पर खड़े हो तुम बाँहें फैलाएँ, दौड़ कर समा जाती हूँ तुम्हारे आग़ोश में, उस पल की नज़दीकी बिलकुल वैसी है जैसे लहर का सागर से मिलना पर फिर भी गुम न होना। कुछ पल को छोड़ कर अपने किनारें तुमसे मिलना मन के तार जुड़ना अपनी नमी को महसूस करना और फ़िर एक भीगा सा एहसास लिए अपने सिरे पर लौट आना... ताज्जुब होता है कभी क्यूँ अधूरा नहीं लगता कुछ ? फिर याद आती हैं तुम्हारी मुस्कुराती आँखें तुम्हारा विश्वास प्रेम पर मुझ पर तो लगता है,