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Showing posts from February, 2016

करवट

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ख़ुश्क सा एहसास  मीठी सी प्यास बोझिल पलकें बेचैन ख़्वाब ये नज़दीकियां फिर भी दूरियां सदियों सी पहचान थोडा सा अनजान अज़ब सी कश्मकश मन के तारों में जुड़ने न जुड़ने का अनिश्चय आहटें अपनी सी तन्हाइयों को चीरती माज़ी का पतझड़ या उत्सव नए मरासिम का ... करवट ली है मन के मौसम ने ! ©विनीता सुराना 'किरण'

एहसास

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क्यूँ मुस्कराते हो यूँ हौले-हौले ? बिखरने लगती है चाँदनी, लिपटने लगती है मुझसे, तुम्हारी नज़रों की छुअन  सिहरन सी देती है। जब यूँ मुहब्बत से देखते हो, तन्हाई में जाने कितने सुर जी उठते हैं.. अक़्सर कहती हूँ तुमसे खुल कर मुस्कराते नहीं पर अब समझी मुस्कुराती तो आँखें हैं लब तो बस भेजते हैं सन्देश और फ़िर उलझ जाती हूँ तुम्हारी नज़र की सरगोशियों में, गज़ब की कशिश बाँध लिया करती है मुझे.. कितने ही अनकहे सवाल अनसुने ज़वाब पर मन बस डूबता-उतरता है मीठे से एहसास में हाँ तुम्हारे क़रीब बहुत क़रीब होने के एहसास में .... ©विनीता सुराना 'किरण'

फ़िर मिलेंगे

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कितना कुछ कहने का मन हुआ तुमसे पर कह नहीं पायी,  जाने क्यूँ ? तुमने तो पन्ने भी फड़फड़ाये, शायद मेरी बेचैनी को  महसूस किया तुमने, तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है मुझे? तुम सबसे पहली सखी जो हो जिसने जाने कितने लम्हें जीये हैं मेरे साथ कितनी यादें दफ़्न हैं तुम्हारे पन्नों में मेरी खिलखिलाहटें भी मेरे अश्क़ भी वो अलसभोर के ख़्वाब भी वो हर शब के साथ बिखरी ख़्वाहिशें भी कुछ भीगे लफ़्ज़ कुछ गहरे एहसास डूबते सूरज की तन्हाई भी सुरमयी शाम के रंग भी सब कुछ तो साझा किया तुमसे... पर आज तुम भी परायी सी लगी या शायद मैं ही दूर हूँ ख़ुद से ख़ामोशी है पर सुकून नहीं लफ़्ज़ बेचैन हैं बाहर आने को पर क़लम है कि साथ नहीं देती ... जाने दो आज कुछ नहीं कहना तुमसे फिर मिलेंगे कभी ! ©विनीता सुराना 'किरण'

ऐ ज़िन्दगी !

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क्यूँ करें तुझसे वफ़ा, ऍ ज़िन्दगी। जाने कब दे तू दगा, ऍ ज़िन्दगी। दर्द जितने दे लगा लेंगे गले, गर दवा भी तू बता, ऍ ज़िन्दगी। ©विनीता सुराना 'किरण'

कसूर

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हमारा नहीं ये कसूर उस नज़र का जिसमें दिखा अक़्स अपना और फ़िर... बस ख़ुद से प्यार कर बैठे ! © विनीता सुराना 'किरण'

कच्चे पुल

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मेरे वाले सिरे से तुम्हारे वाले सिरे तक हर रोज बनाते हैं हम कितनी बातों के पुल फिर छोड़ देते हैं कुछ धागे खुले बस यूँ ही, कुछ अनछुए एहसास मोतियों से पिरोये हुए उनमें । न  न ...मेरा कोई इरादा नहीं माला गूँथने का, मन नहीं करता ख़्वाहिश तुम्हें बाँध कर रखने की, तुम पसंद हो आज़ाद पंछी से ही, एक टुकड़ा आसमान जो परों पर लेकर उड़ता है, पूरे आसमान की चाहत में .. यक़ीन मानो, ये हर दिन बनने वाले नित नए पुल रुकने नहीं देते मेरे भीतर बहती नदी को बस गुज़रती चलती है वो और मैं बहती हूँ उसके साथ, पर जानते हो फिर भी ये सुकून रहता है कि पुल के उस पार एक सिरे पर खड़े हो तुम बाँहें फैलाएँ, दौड़ कर समा जाती हूँ तुम्हारे आग़ोश में, उस पल की नज़दीकी बिलकुल वैसी है जैसे लहर का सागर से मिलना पर फिर भी गुम न होना। कुछ पल को छोड़ कर अपने किनारें तुमसे मिलना मन के तार जुड़ना अपनी नमी को महसूस करना और फ़िर एक भीगा सा एहसास लिए अपने सिरे पर लौट आना... ताज्जुब होता है कभी क्यूँ अधूरा नहीं लगता कुछ ? फिर याद आती हैं तुम्हारी मुस्कुराती आँखें तुम्हारा विश्वास प्रेम पर मुझ पर तो लगता है,

वैलेंटाइन

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तुम्हीं ने तो मुक़र्रर किया था ये दिन उस ख़ास मुलाक़ात के लिए और वो पहला तोहफ़ा ... आज भी महक उठता है रंग फिर से चटख उठते हैं मेरा स्पर्श पाकर ये बरसों का फ़ासला अपनी जगह और तुम्हारा एहसास .. तब कहाँ जानती थी साल दर साल एक रस्म की तरह निभाऊंगी, हाँ आज फ़िर लूँगी दो तोहफ़े ... एक तुम्हारे लिए और एक मेरे लिए तुम्हारी तरफ़ से ! किसी ने कहा इस दिन को अब वैलेंटाइन डे कहते हैं, तो चलो आज फ़िर पूछ लेती हूँ बनोगे मेरे वैलेंटाइन ! ©विनीता सुराना 'किरण'

तेरा ख़्याल

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वो मीठा सा एहसास अब भी तारी है मन है कि आगे बढ़ता ही नहीं कदम यूँ थमे कि वक़्त ने छोड़ दिया साथ बस मैं हूँ मेरा पागल मन और तस्सवुर में तेरा ख़्याल ! ©विनीता सुराना 'किरण'

अलविदा !

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काश ! कोरे पन्ने पर पेंसिल से लिखे अल्फ़ाज़ सी होती यादें तुम्हारी.. मिटा देती उन्हें रबड़ से और लिख देती अलविदा ! ©विनीता सुराना 'किरण'

बहाना

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कहा था न तुमने "ये बूँदें जब-जब छुएंगीं मुझे महसूस करोगी" आज फिर बरसी हैं बूँदें एहसास बनकर .. कश्मकश में हूँ ! कैसे अदा करूँ इनका शुक्रिया ? कभी तुम्हारे आने का बहाना थी और अब बस मुझे सताने का... ©विनीता सुराना 'किरण'

एक और अनाम ख़त

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कुछ ख़ास था वो दिन जब तुम मिलने आये थे। कनखियों से देख मुझे हौले से मुस्कुराये थे। अनकही सी कुछ बातें, ख़ामोश पल अनगिनत मगर भीगे से एहसास लिए तुम क़रीब चले आये थे। सुबह की पहली किरण सा नर्म उजास लिए यूँ दाख़िल हुए मेरी ज़िन्दगी में, देर तक तुम्हारी आँखों में खोजती रही कि शायद कोई तो खोट हो और तुम्हें दूर जाने के लिए कह सकूँ पर भीगती ही चली गयी तुम्हारी रिमझिम मुहब्बत में, पढ़ती गयी पन्ना दर पन्ना वो ख़ूबसूरत सा प्रेम-पत्र, खुशबुओं में घिरी वो अज़ब सी मदहोशी थी जूनून था तुम्हारा या बेख़ुदी मेरी.. जो भी हो हर लम्हा ख़ास था.. ख़्वाबों की रेत से यादों के हसीं घरौंदे बनाते गए हम, जानती थी एक लहर आनी है बहा ले जायेगी सब कुछ पर बावरा मन था जो समेटता रहा तिनका-तिनका एहसास गढ़ता रहा इश्क़ ! कोरे से मन पर कितने रंग बिखरे, पर मैं कहाँ रंग पायी किसी रंग में ? हाँ कुछ छींटे ही थे बस मेरे हिस्से में, इससे ज्यादा हक़ न ही मोहलत दी वक़्त ने, रह गयी फिर आधी-अधूरी सी मैं, बैठी हूँ आज भी किनारे पर शायद फिर कोई लहर ले आये पैग़ाम-ए-मुहब्बत! तुमसे इक मुलाक़ात की आरज़ू में तुम्हारी

किर्चियाँ

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चुभने लगीं जब किर्चियाँ अपने ही ख़्वाबों की, फ़िर कहाँ सोई ये आँखें ... ©विनीता सुराना 'किरण'

अब तुम्हारी बारी है

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उनींदी आँखों में उतरा ख़ूबसूरत सा ख़्वाब और जी उठा ये तन्हा मन रात गुज़री ...जैसे पलछिन, ख़ुमारी थी कुछ अज़ब सी जो सुबह तक तारी है मानो कह रही हो 'किरण', अब तुम्हारी बारी है ! ©विनीता सुराना 'किरण'