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Showing posts from October, 2015

इंसानियत

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कहाँ खो गयी तुम ? कहाँ ढूँढू तुम्हें ? बेरहमी से क़त्ल हुआ तुम्हारा या कहीं ज़िंदा जला दिया तुम्हें ? अब राख़ में दबी हैं चिंगारियाँ, धधकने को आतुर... शमसान सी नीरवता को चीरती है तो बस कुछ चीखें कल मृत हुई कुछ धड़कती साँसों की ! तुम होती तो शायद मरहम लगाती रिसते ज़ख्मों पर, उजड़ी हुई फ़सलों में भी तलाश लेती कुछ बीज़ और नए पौधों की जड़ें जकड़ लेती उखड़ी मिट्टी के कणों को, बचा लेती संवेदनाओं को बह जाने से, आवेग के बहाव में... कहाँ दफ़न किया तुम्हें इन नादानों ने ? कितना पुकारा मैंने तुम्हें, कहाँ हो तुम ....... "इंसानियत" 😞😞 ©विनीता सुराना 'किरण'

पहरा

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बिंदी भी है काज़ल भी लाली है ... मांग में , लबों पर , आँखों में भी ! अजब सा नशा है पर फिर भी 'किरण' कुछ तो अधूरा सा है.... मन पर आज पहरा सा है ! ©विनीता सुराना 'किरण

कन्या पूजन

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क्या अब भी ये ढकोसले जारी रहेंगे ? कन्या पूजन !!! कभी आँखों से , कभी ज़ुबाँ से, कभी भावों में, कभी हाथों से हर रोज़ निर्वस्त्र होती हैं कन्याएं ...पड़ौस में किसी मासूम की कराहों के बीच क्या अपने घर में ये रस्में जारी रखने का हौसला अब भी बाकि है ???? ये करो, ये न करो, ये पहनो, ये न पहनो, यहाँ जाओ, कब जाओ, कब न जाओ ...दलीलें और उलाहने तो बहुत हैं पर क्या करें बेचारी अबोध की उम्र नहीं समझने की, उसी की गलती है क्यों नहीं समझती अब वो माँ की कोख़ में नहीं ! ओह्ह पर माँ की कोख़ भी कहाँ सुरक्षित है ?? कुछ हाथों की पहुँच वहाँ भी तो है #### -विनीता सुराणा 'किरण'

उनकी दास्तान (7)

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इधर ये दोनों जि़न्दगी के हमसफ़र दरिया के किनारों को बिलखता छोडकर आसमान के आंसुओं से भीगी हुई ज़मीन के दामन पर एक दूसरे का हाथ अपने हाथों में थामे हुए अपने कदमों के निशानों से आगे-आगे चलकर मौत की मंजि़ल तय करते हुए अपने ही मज़ारों की तरफ़ बढ रहे थे। हवा बार-बार इन्हें पीछे धकेल रही थी , मगर इश्क़ की ताकत के आगे उसकी एक नहीं चली। सिवाय इसके कि एक शरारती बच्चे की तरह उस हुस्न की मलिका के दुपट्टे को खींच-खींच कर सर और शानों से गिरा सके। जमाने को तो ये बहुत पीछे छोड आये थे और खुदाई ख़ुद इनके बुलन्द हौसलों के आगे थर्रा गयी थी। फिर भी रह-रह कर हिम्मत कर के इन्हें रोकने की कोशिश कर रही थी भले ही वो इसमें कामयाब नहीं हो पा रही थी। ऐसे में जब वे आख़िरी बार उस राह से गुज़र रहे थे तो कांटे कैसे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करने का इल्जाम अपने सर लेते जिन कांटों पर उनके कदम पडे वो उनके पांव को चूमकर अपनी बदनसीबी पर खून के आंसू रोता हुआ उनके पांवों में ही दम तोड देता। इस तरह चलते-चलते वे वहां पहुंचकर रूके जहां सबको जाना है और जो आखि़री मुकाम है। जहां अपने पांवों से चलकर आने वाले तो लौट ज

उनकी दास्तान (6)

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दोनों बारिश में भीग चुकी थीं। हवाएं उनके दुपट्टे उडाये चली जा रही थीं और उनके गेसुओं से पानी की बून्दे टपक-टपक कर उनकी कदमबोसी की कोशिश कर रही थी। कनीज़ ने वो रक़ेबी नवाबजादी को अपनी तरफ़ से उस सरताज़ के लिये उनकी कामयाबी की सौगात कहकर दे दी थी और वो मज़बूर-ओ-बेजान रस्सा नवाब की हवेली के पीछे झूल रहा था। जैसे ही उस कनीज़ ने अपने बन्धे हुए बालों के पेंच-ओ-ख़म खोले... गोया जलती हुर्इ आग में किसी ने रूर्इ का गोला फेंका हो और वो ठण्डी होती आग फिर से भभक उठी हो। ऐसे ही हवाएं पागल हो उठी , ज़मीन के फटने की तरह बादल गरजे , बिजलियां जैसे भाग-भाग कर अपना माथा पीटती फिरने लगी। यही दौर फिर-फिर के चला आता था लेकिन नवाबजादी अपनी सहेली से गले लिपट कर इस तरह आंसू ढलका रही थी जैसे आने वाले कल की बजाये आज ही वो उससे जुदा हो रही हो। वो दासी पत्थर के किसी बुत की तरह खडी थी। उसके उडते हुए काले लम्बे बाल हजारों सापों की तरह बल खाते नज़र आते थे जैसे किसी को डसने के लिये जीभ लपलपा रहे हों। गले मिलने का दौर भी ख़त्म हुआ तो नवाबजादी थोडी देर बाद एक हाथ में रक़ेबी और दिलरूबा लिये दूसरे हाथ से रस्से को

उनकी दास्तान (5)

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      और शांम एक बार फिर यादों की बारात लेकर चली आयी। ये मौसम था बदलियों और बिजलियों का। चान्द सितारों के साथ बादलों के आंचल की ओट में छिपकर अपनी चान्दनी के साथ फ़ुर्सत के लम्हों का लुत्फ़ उठा रहा था और रिमझिम के तराने गाती रात अपने शबाब के लड़कपन में थी। ऐसे में भी जैसे कबि्रस्तान के किसी कजऱ् को चुकाने के लिये वो दीवानी आज फिर उसी रस्से से उतर कर चली जा रही थी।     वो भी उधर कैसे रह सकता था। अपने महबूब को कामयाबी की मुबारक़बाद देने चल दिया। इस कामयाबी को कब्रिस्तान से जि़न्दगी मिली थी और जि़न्दगी की इसी कामयाबी की मुबारकबाद आज  कब्रिस्तान तक पहुंचानी थी।         हमेंशां की तरह उसी क़ब्र पर वे दो रूहें मिली लेकिन आज दिलरूबा चुप था। सिफऱ् हवा की सांय-यांय और की दुनियां से बेखबर वे दोनों..... जो अपने ख़्वाबों की दुनियां में बे-आवाज़ चले जा रहे थे। उधर नवाबजादी की सहेली का हाल ये था कि वो आंसू की बून्दों के साथ अपने क़त़्ल की घडि़यां गिन रही थी। अब तो सिर्फ़ एक दिन बाक़ी था। उस दोनों आशिकों के लिये कितना बड़ा था ये एक दिन कि वो मिले बिना नहीं रह सके और इस ग़रीब के लिये कि