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Showing posts from June, 2015

तुम्हारे लिए

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कितनी पगडंडियाँ कितने पड़ाव कितने अवरोधक कितने बवंडर पर कहाँ कभी रुका .. विचलित तो हुआ मगर थमा नहीं ये अश्व रुपी मन... यादों के सायों से घिरा तब भी नहीं, अपनों से दंश मिले तब भी नहीं, अच्छे बुरे सभी अनुभव आत्मसात किये बढ़ता ही रहा निरंतर ... सरपट दौड़ा कभी तो वक़्त को भी पछाड़ दिया कल्पनाओं का सुनहरी संसार बसाया जहाँ तक वक़्त भी नहीं पहुँचा ... कभी भीनी सी यादों से मुलाक़ात करने चला तो वक़्त भी एक बारगी पीछे लौट चला जैसे... जीवन के कितने ही रंगों ने भिगोया पर मन का अपना एक रंग है अनुभूति का रंग एहसासों का रंग जिस पर कोई और रंग चढ़ा ही नहीं .... स्मृतियाँ लहू बनकर दौड़ती है आज भी रगों में तो किसी लगाम से रुका ही नहीं बस सरपट दौड़ता ही रहा एक जुनून एक ख़्वाहिश लिए तुम्हारे लिए ! बस तुम्हारे ही लिए ..... © विनीता सुराना 'किरण' Painting साभार सुरेश सारस्वत जी

प्रेरक संस्मरण

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मानव समाज में इस तरह के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ अभावों और संघर्षों से घबरा कर व्यक्ति अपनी सहनशक्ति खो बैठता है और या तो निरुत्साहित होकर मृत्यु का वरण कर लेता है या फिर बगावत कर बैठता है समाज से ही और स्वयं भी किसी न किसी रूप में दमनचक्र का हिस्सा बन जाता है | ऐसे व्यक्ति समाज में कोई सार्थक बदलाव ला सकते हैं, ऐसा शायद ही संभव हो, सीमित समय के लिए ध्यानाकर्षण अवश्य कर सकते हैं परन्तु उसका कोई सकारात्मक परिणाम भी निकले ये कतई आवश्यक नहीं | मानव प्रकृति का एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसे न केवल सोचने-समझने की शक्ति प्राप्त है अपितु उस शक्ति के प्रयोग से वह अपना और अपने जीवन से जुड़े व्यक्तियों का भी जीवन बदलने का सामर्थ्य रखता है | आवश्यकता है तो बस मनोबल की और सकारात्मक सोच और जुझारूपन की, विपत्तियों से हार मानकार उनके समक्ष घुटने टेक देना आसान रास्ता है परन्तु उन्ही विपत्तियों के सामने डटकर खड़े होना और अपनी सकारात्मक सोच से दूसरों में भी संघर्ष की मनोवृति जगाना दुर्गम मगर सार्थक रास्ता है जो देर-सवेर मंजिल तक पहुँचता ही है और समाज में बदलाव की नींव रखने का कार्य भी करता है |     

राख़

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देख रही हूँ अचरज से उस आसमाँ पर फैली राख़ सब कुछ तो है उस राख़ में.... बेचैन ख़्वाब अधूरी मृत हुई ख्वाहिशें कुछ गुमशुदा अपने जिनके दूर कहीं टिमटिमाने का भ्रम आज भी पाले हैं आँखें शायद उसी राख़ में कहीं दबी हैं अस्थियाँ उन दुआओं की जो सफ़र पूरा न कर सकीं और झुलस कर खो बैठीं अपना असर हर दिन मिलता है ईंधन उस राख़ को टूट कर बिखरती हसरतों का और फिर सुलग उठती है भीतर गहरे तक दबी चिंगारियाँ ... शायद वहीँ झुलस गए सन्देश भी जो भेजती रही 'तुम्हें' इस आस में कि शायद 'तुम' भी मेरी तरह बेचैन होकर तलाशने आओगे उस राख़ में हमारे अधखिले ख़्वाब अधूरे वादे अधूरी रस्में बेजान कसमें..... थकने लगी हैं आँखें अब सोना चाहती हूँ, एक बेख़्वाब नींद के आगोश में क्यूँकि अब और ख़्वाब देखने से डरने लगी हैं आँखें.. नहीं देना चाहती अब और ईंधन उस सुलगती राख़ को ! ©विनीता सुराना 'किरण'

मुट्ठी भर आसमाँ (मुक्तक)

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चंद क़तरे ख़्वाहिशों के, किर्चियाँ ख़्वाबों की हों कुछ। रंग बिखरे हर तरफ़ हों, खुशबुऐं फूलों की हों कुछ। अब नहीं ख़्वाहिश परों की, चाँद को छूना नहीं है, एक मुट्ठी आसमाँ बस, झालरें तारों की हों कुछ। © विनीता सुराना 'किरण'

कान्हा (मुक्तक)

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करो चाहे जतन जितने नहीं मानूँ अभी कान्हा। मगन तुम गोपियों में थे, तरसती मैं रही कान्हा। बजा कर मोहिनी बंसी सभी को तुम लुभाते हो, कहो क्या आज तक बंसी, मेरी ख़ातिर बजी कान्हा। (1) राह से पनघट की कान्हा, यूँ न भटकाओ मुझे। इस तरह बातें बनाकर, अब न बहलाओ मुझे। डाँट मैया से पड़ेगी, देर से पहुँची अगर, आज बंसी की धुनों से फिर न बहकाओ मुझे। (2) © विनीता सुराना 'किरण'