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Showing posts from September, 2015

अपना-अपना आसमां

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ख़्यालों में ही सही उड़ने की चाहत तो मैंने भी की है, महसूस भी किया है पर खोलकर हवाओं के संग बहने का रोमांच, खुले आसमां में बादलों के संग अठखेली, तन से कहीं ज्यादा मन की आज़ादी, न अपनों के उलाहने न गैरों की तीखी नज़रें, बस एक उन्मुक्त उड़ान ख़्वाबों की इन्द्रधनुषी ख्वाहिशों की...... तो उड़ने दो न मुझे, महसूस करने दो प्यास मीठे पानी की और मखमली स्पर्श उन बूंदों का जो अब्र की गोद में खेलतीं हैं, भीगना है मुझे उस रूहानी बारिश में, खो जाने दो न मुझे उस सुकून में..... तो क्या हुआ जो थोडा लडखडाऊँगी, शायद उड़ने की कोशिश में गिर भी पडूँ पर कोशिश फिर भी करनी है मुझे, कभी तो उड़ना सीख ही जाऊँगी.... कहीं ये डर तो नहीं तुम्हें कि मैं लौटूंगी या नहीं ? तो ऐसा करो, अपने मन से बाँध लो मेरे मन को, साथ तुम भी उड़ चलो पर इतना फ़ासला जरूर रखना हमारे बीच कि टकराएँ न पंख हमारे, हम चुने अपना-अपना आसमां पर मन के धागे जुड़े रहें, फिर-फिर लौटें एक दूजे की ओर मगर बंधन रस्मों-कसमों के नहीं गठबंधन हो रूह से रूह का, अरमान हो एक दूजे में पूर्ण होने का, धागे हों अ

हाँ कमज़ोर है हम !

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कमाल करते है न हम जैसे लोग ! तुम्हें शब्दों की परिधि में जकड़ना चाहते हैं कोई एक निर्धारित परिभाषा कैसे दे पायेगा तुम्हारी ? हर एहसास के साथ रूप बदलते हो तुम कोई एक नाम कहाँ है तुम्हारा, जिस पर सबकी सहमति हो ? कभी प्यार, स्नेह, ममता तो कभी प्रेम, इश्क़, मुहब्बत.... हर शख़्स ने तुम्हें गढ़ना चाहा अपनी सहूलियत से अपने शब्दों के ढाँचे में ढालना चाहा, और तुम्हें हर बार एक नया चोला पहना दिया.. कुछ विकृतियाँ भी जुड़ गयी इस उपक्रम में, दूषित होता गया तुम्हारा निर्मल रूप, फिर कुछ शब्दों का ईज़ाद किया कभी वासना, कभी बलात्कार, कभी पिपासा, ताकि तुम्हें एक वर्ग का आवरण पहना सकें तुम्हारा अस्तित्त्व बचाने को तुम्हारी पवित्रता अक्षुण्ण रखने को... पर क्या तुम्हें चोट नहीं पहुँची ? क्या तुम घायल नहीं हुए ? मैंने सुनी है अक्सर दर्द भरी चीखें तुम्हारी, देखे हैं अनगिनत घाव तुम्हारे कोमल मन पर खरोचें तुम्हारे नाज़ुक जिस्म पर पर सच ये भी है कि तुम्हारे रिसते घावों को सीने की क्षमता भी किसी और के पास नहीं तुम्हें स्वयं ही अपना अमृत उड़ेलना होगा उस विष पर जो नीलों सा उभरता है तुम्हारे को

उनकी दास्तान (3)

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फिर वो दिन भी आ गया , जब नवाब ने अपने बेड़ों का मुंह अपने मुक़ाम की ओर मोड़ा। बेटे की शादी रचा लेने के बाद उसके क़ाफि़ले को रूख़सत कर रहा था वो गांव और रूखसत कर रहा था उस क़ाफि़ले के साथ अपने गांव की एक बुलबुल को जो कल तक गली-गली कूकती फिरती थी। जिस तरह उस रंगीन शांम में वे बजड़े सजकर आये थे , वैसे ही सजकर दरिया में खड़े थे। कुछ बजड़े और मिल गये थे जिनमें , उस बुलबुल के बाग़वां ने अपने बाग़ के कुछ बेहतरीन तोहफ़े नजराने के तौर पर नज़र किये थे। रूखसती की सब रस्में पूरी हो गयीं। होठों की हंसी पिघलकर आंख से आंसू बनकर बह निकली। गले मिलने के बाद हाथ हवाओं में उठे और ख़ुदाहाफि़ज़ कहने लगे तो चप्पुओं ने लहरों के सीने पर मिलने-बिछुडने का अहसास कराने वाली छप-छप का राग छेडा। बजड़े पानी का सीना चीरकर चल पडे अपने मंजि़ल-ओ-मुक़ाम की तरफ। बारात की विदार्इ के बाद थोडी ही देर में सब लौट गये। लेकिन वो इन्तज़ार की मूरत बना उन दूर जाते हुए बजड़ों को देखता रहा , जिनमें से एक पर लहरा रहा था लाल दुप्पटा और दरियार्इ लहरों की कलकल में दिलरूबा की तरंगें घुलकर धीमी और धीमी होती जा रही थी। बजड़े जब

उनकी दास्तान (2)

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तफरीह पसन्द नवाबजादी अपनी सहेली के साथ तफरीह के वास्ते दिलरूबा लेकर दरिया किनारे आयी थी। एक बडी सी चटटान पर बैठी शांम के धुंधलके में दिलरूबा पर भीगे-भीगे सुरों में कुछ गुनगुना रही थी। दिलरूबा बजाने में वो इतनी गाफि़ल थी कि उसे मालूम ही न था कि वक़्त की घडि़यां कहां तक खिसक चुकी थी। उधर उस नौजवान के खण्डहरों में जैसे उस आवाज़ ने जान डाल दी थी। उसके मकान का एक-एक पत्थर जैसे गीत गा रहा था। उसका दिल जैसे कह रहा था कि उस गीत के ज़रिये कोर्इ उसे बुला रहा थां। वो घर से एक अन्जान बन्धन में बन्धकर अन्जान मंजि़ल की तरफ़ उस आवाज़ के सहारे चल दिया। जैसे उसके पावों को किसी कच्चे सूत से बान्ध कर कोर्इ धीरे-धीरे अपनी तरफ़ खींच रहा हो। उसे कुछ मालूम नहीं था कि वो कहां जा रहा है। जहां वो पहुंचा उस मंज़र को देखने के लिये जैसे सूरज भी डूबते-डूबते रूक गया था। हर चीज ठहरी-ठहरी सी महसूस होती थी। चल रहा था तो बस मौसिकी का जादू....। दूध से धुले संगमरमर पर दो सितारे हर बात से बेख़बर दिलरूबा के सुरों से उस दरिया की कलकल के साथ छेड कर रहे थे। दीवाना सा खडा देखता रह गया वो। सारा गांव अपने कामों मे

उनकी दास्तान (1)

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                  उसकी अम्मी बूढ़ी थी और वालिद का इन्तकाल हो चुका था। दरिया के इस पार वो अपने भार्इ के साथ रहता था। उसका मकान क्या था बस एक खण्डहर था , जिसकी दीवारों को बरसात के पानी ने धो-धो कर एक-एक पत्थर को चमका दिया था। उपर छत और छज्जों पर हरी-हरी कार्इ पर सूखी पीली धूप इस तरह लटक रही थी मानों कोर्इ बुढि़या हरा दुपटटा औढ़े हो और उस पर सोने का गोटा लगा हो। उसके बडे भार्इ ने उसकी परवरिश किसी शहज़ादे की तरह की थी और आज वो एक खूबसूरत नौजवान था जिसकी शौहरत का चर्चा उस कस्बे की गली-गली में था। फ़़डकती हुर्इ बाजुएें , मज़बूत चौडा सीना , एक-एक बाल में सौ-सौ से ज़्यादा बल , आंखों में दो चमकते हुए हीरे , होठों पे सदाबहार मुस्कान लिये वो हरदिल अजीज़ , हर आंख का नूर ंऔर हर एक की पसंद था। हर नौजवान हुस्न की वो चाहत और हरदिल का अरमान था। मगर...... वो इन बातों से अनजान था कि वो क्या है ? क्या सोचते हेैं लोग उसके बारे में ? वो सबसे एक ही अन्दाज़ में खुशदिली से मिलता और मुस्करा कर जवाब देता। वो मुस्कान जिस पर करोडों दीनार खर्चे जा सकें वो यूं ही लुटा दिया करता। एक मासूम बच्चे जैसा दिल