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Showing posts from February, 2014

गीत (बूंदों से बात)

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आज फिर बूंदों से मुलाक़ात हुई ऐसा लगता है तुझ से बात हुई शरारत से वो मुस्कराना तेरा हथेली से छींटें उडाना तेरा मीठे से नगमे वो गाना तेरा लिए हाथ हाथों में चलना तेरा फिर उन्हीं यादों की बरसात हुई ऐसा लगता है ...... साँसों में बसती है खुशबू तेरी धडकनें भी सुनाए तानें तेरी लिए ख्वाब के पंख मैं भी उडी थी तरानों में तेरे मैं जी उठी थी  फिर उन्हीं ख़्वाबों की बरसात हुई ऐसा लगता है ........ ©विनिता सुराना ‘किरण’

ग़ज़ल

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हासिले गम ही रही गर जिंदगी कर ए बन्दे अब ज़रा तू बंदगी है हुनर जब हाथ में क्यूँ दरबदर ढूंढता तू फिर रहा कारिंदगी (नौकरी) उम्र भर तू ज़ुल्म ही सहता रहा हौसला कर अब जता उफ्तादगी (आपत्ति) मात देकर दूसरों को खुश हुए जीत ले जो खुद को तो है उम्दगी (श्रेष्ठता) है चलन माना दिखावे का बहुत सुर्खरू (तेजस्वी, सम्मानित) फिर भी लगे है सादगी   हो खुलापन दोस्तों में ठीक है चाहिए गैरों से कुछ पोशीदगी वो हँसी जो दिल किसी का तोड़ दे उस हँसी से अच्छी है संजीदगी रास्ते सीधे मिले तो चुन उन्हें क्या जरूरी जीस्त में पेचीदगी हासिले मंजिल नहीं आसां ‘किरण’ रुक नहीं अब चल दिखा आमादगी (तत्परता) ©विनिता सुराना 'किरण'

ग़ज़ल (तीरगी)

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दाग गहरे भी छुपाती तीरगी रंग अपनों के दिखाती तीरगी कट ही जाता है सफ़र तन्हाई में साथ हो महबूब भाती तीरगी छोड़ जाता जब कोई अपना जहां अश्क भी संग में बहाती तीरगी हो अमावस चाँद छुपता ओट में चाँदनी को भी लजाती तीरगी ज़ख्म रिसते हर तरफ देखे 'किरण' मखमली परदे सजाती तीरगी ©विनिता सुराना 'किरण'

सुनहरे पिंजरे का मूक पंछी

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पिंजरे का पंछी टकराता है चोंच फडफडाता है पंख करता है प्रयत्न खोलने को द्वार शायद कोई हो जो सुन ले पुकार...... खोलता है पंख पर आसमां कहाँ मेवों से भरा थाल, फल और पकवान पर वन के मीठे बेर का स्वाद कहाँ ...... बोझिल सी लगे हर सांस फिर भी मन में है आस इस सुनहरी अँधेरे के बाहर कहीं हो थोडा सा उजास, भुलाकर प्रलोभन सभी रोकता नहीं अपने प्रयास...... कहीं जो भोग-विलास में रम गया विस्मृत कर अपना उद्देश्य थम गया तो रह जाएगा बनकर “सुनहरे पिंजरे का मूक पंछी”. ©विनिता सुराना ‘किरण’

बूँदें

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राह भटकी इक बदली सौगात लिए बूँदों की आयी है भिगोने छोटा सा संसार मेरा भीगा है तन-मन भीगा है आँगन भीगे खेत-खलिहान बरसा है अमृत हर ओर झूमी तलैया झूमा है कँवल बुझी है प्यास विरहन धरा की...... पर कहाँ सुन पायी वो बदली दबी सी, रुंधी सी सिसकियाँ उन अजन्मी जानों की जो निराश्रित, असहाय धीरे-धीरे खोने लगी थी अस्तित्व अपना उस नीड़ में जिसे तिनका-तिनका बुना था उस चिड़िया ने और सहेजे थे अपने अजन्मे बच्चे...... ये कैसी विडंबना है कहीं अमृत तो कहीं विष कहीं जीवनदायी तो कहीं विनाशक कहीं प्रेम तो कहीं विरह बन जाती है बूँदें | ©विनिता सुराना ‘किरण’