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Showing posts from July, 2014

आँगन (कहानी)

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घड़ी की सूइयाँ रात के 9:00 बजा रही थी | मंथन अपने ऑफिस से लौटा ही था, मधु ने तुरंत मेज पर खाना लगाया और बेटे को आवाज़ लगायी खाने के लिए | उसकी तरफ से कोई प्रत्युत्तर न पा कर मधु उसके कमरे की ओर चली गयी बुलाने, दरवाज़े पर पहुंची तो उसके ठहाके ने सहसा कदम रोक दिए उसके .....धीरे से दरवाज़े पर दस्तक दी तो मंथन की तल्ख सी आवाज़ आई “क्या है मम्मी?” “खाना लग गया बेटा, सब ठंडा हो जाएगा”, मधु बोली| भड़ाक से दरवाज़ा खुला और मंथन भुनभुनाता हुआ बाहर आया, “आपको कितनी बार बोला है खाना लगा कर रख दीजिये, मैं ले लूँगा ...थोडा सा समय अपने लिए मिलता है उसमें भी आप दखल देती हो.... मेरी अपनी भी कोई ज़िन्दगी है” “पर बेटे मैं तो खाने के लिए ही ....” मधु अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पायी उससे पहले वह थाली उठा कर अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया |      कल रात से ही बेडरूम की ट्यूब लाइट फ्यूज पड़ी हुई थी, सोचा था मंथन आएगा तो बदल देगा| पति भी काम से बाहर गए हुए थे और उसका हाथ ट्यूब लाइट तक पहुँच नहीं पा रहा था, पर अब मंथन से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पायी वह और चुपचाप कमरे की ओर चल पड़ी, सोने से पहले हमेशा

सपने! हाँ बस सपने

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सपने ! हाँ बस सपने कब हुए हैं अपने ? बसेरा है आँखों में पर फिर भी बेगाने ... ठहरे हैं पलकों की दहलीज़ पर भीगे है अनछलके अश्कों में कड़ियाँ जोड़ते ज़िन्दगी की पर टूट कर बिखरे है हर कहीं ...... सोयी यादों को सहला जाते कभी दिल को तड़पाते जीवन के कितने रंग दिखाते और खुद बैरंग से ! कभी नगमे हसीं कभी ग़ज़ल विरह की साथी है अँधेरी रातों के उजालों में तन्हा कर जाते सपने ! हाँ बस सपने कब हुए है अपने ?? ©विनिता सुराना ‘किरण’

ओस से प्यास बुझती नहीं

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एक वृक्ष था खड़ा आँधियों की राह में रोक न पाया उन्हें धूल में वो मिल गया बिखर गए थे पुष्प भी पत्र भी विलग हुए कली-कली थी शोक में भ्रमर भी निस्तब्ध थे ..... ठान ली पर ‘बीज’ ने हार न मानेगा वो साथियों सहित सभी धरा में वो समा गया बरखा ने सींचा नेह से धरा की गोद भर गयी आंधियाँ फिर-फिर चली वन मगर डिगे नहीं..... सत्वचन ये जान लो मुश्किल नहीं कुछ ठान लो प्यास हो अगर बड़ी नीर बहता चाहिए ओस कितनी चाट लो   प्यास तो बुझती नहीं | ©विनिता सुराना 'किरण'

आहट (नव गीत)

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अनदेखे अनजाने से मन के सूने गलियारों में पहचाने से क़दमों की वो आहट अक्सर सुनती हूँ | थम जाती है साँसें भी सुनने को सरगम मीठी सी रंगों की महफ़िल सजती तब ख्व़ाब सुनहरे बुनती हूँ | लहरें बीते लम्हों की जब तटबंधों को छू जाती ‘किरण’ ह्रदय-सागर से मैं यादों के मोती चुनती हूँ | चक्र समय का चलता जब ऋतुएँ बदले मौसम बदले नैनों की बंजर धरती पर सूखे आँसू धुनती हूँ |  © विनिता सुराना ‘ किरण ’