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Showing posts from December, 2015

घात

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नफरतों की भीड़ में खोने लगे एहसास, शोर सी लगती हैं आहटें भी, हर नज़र चुभती लगी, सहमी सी साँसें भीगे हैं ख़्वाब, क्यूँ रुसवा हुई है ज़िन्दगी बता... ऍ मेरे ख़ुदा ! क्या मेरी ख़ता ? मिट्टी था जिस्म माना, बेहिसाब थे ज़ख्म, दर्द का एहसास बेसाख़्ता, पर टूटी हूँ बिखरी हूँ बार-बार ज़ार-ज़ार जब घात हुआ विश्वास पर और रूह भी छली गयी..... © विनीता सुराना 'किरण'

ड़ोर

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कुछ दर्द हैं एहसास भी हम दूर हैं कुछ पास भी कुछ बात है कुछ ख़ास है इक डोर है जो थाम के हम मिल रहे हैं आज भी >>>>> © विनीता सुराना 'किरण'

तुम

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कल फिर कुछ लम्हें चुरा लायी हवा माज़ी के पन्नों से ... फिर महक उठी तन्हाईयाँ, जी उठी कुछ पल के लिए सूनी सी डायरी, फिर बुने ताने-बाने अल्फाज़ की चादर में कुछ हसीन ख़्वाब, कुछ मीठी सी ख़्वाहिशें, थोडा सा दर्द, थोड़ी सी नमी, बंजर सा मन भीगा है अब भी, चस्पा है एक भीनी सी महक अब भी आसपास, शायद अब भी जीते हो तुम मुझमें कहीं ... ©विनीता सुराना 'किरण'

यादें

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रात के आग़ोश में कुछ ख़्वाब कसमसाए थे, जाने क्यूँ .. शबनम के कुछ क़तरे अब भी लिपटे है मेरी पलकों से, शायद वो भीनी सी महक तुम्हारी अब भी वाबस्ता है मेरी साँसों से ! ©विनीता सुराना 'किरण'