घात
नफरतों की भीड़ में खोने लगे एहसास, शोर सी लगती हैं आहटें भी, हर नज़र चुभती लगी, सहमी सी साँसें भीगे हैं ख़्वाब, क्यूँ रुसवा हुई है ज़िन्दगी बता... ऍ मेरे ख़ुदा ! क्या मेरी ख़ता ? मिट्टी था जिस्म माना, बेहिसाब थे ज़ख्म, दर्द का एहसास बेसाख़्ता, पर टूटी हूँ बिखरी हूँ बार-बार ज़ार-ज़ार जब घात हुआ विश्वास पर और रूह भी छली गयी..... © विनीता सुराना 'किरण'