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Showing posts from October, 2018

कल्पना

जाने कितने फ़ासले तय करती है कल्पना , कुदरत से जन्मी ,कुदरत में ही मुक़म्मल होने के इंतज़ार में... बिखरते हैं, सिमटते हैं, निखरते हैं लम्हे कल्पना की परिधि में  मगर तल्ख़ हक़ीक़त अक्सर खरोंच दिया करती है उनके मख़मली पैरहन.. मेरे चित्रकार, एक परत गहरे, चटख, अमिट रंग की मुझ पर भी चढ़ा दो न ! 💕  किरण

तुमसे ही ...

अब जाने क्यों हैरत नहीं होती तुम्हारी किसी बात पर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ तयशुदा ही हो रहा तुम सब वही तो करते हो, कहते हो जो मुझे लगता था तुम करोगे, कहोगे। मेरे अल्फ़ाज़ और उनमें गुंथे गहरे एहसास तुम्हें यूँ ही अपने से नहीं लगते ये सब जीये हैं मैंने ये सब मेरी कहानी का हिस्सा हैं और तुम वह किरदार जिसके बिना मेरी कहानी का आरंभ ही न होता ... न जाने कितने ख़त लिखे होंगे तुम्हें कितनी बातें की होंगी तुमसे उन ख़ामोश रातों में जब अपनी धड़कनें भी साफ सुनाई देती थीं रेडियो पर कोई रूमानी गीत सुनकर  जाने कितनी बार ख़ुद को बाहों में भरा होगा सुनो तुम्हारे साथ बुने वे सब दृश्य और  संवाद मुझे कभी काल्पनिक लगे ही नहीं तुम हमेशा से जीते रहे मुझमें और जिलाए रखा मुझे भी उस जड़ की तरह जो मिट्टी के भीतर हरी रही अपनी तमाम डालियाँ मुरझा जाने के बाद भी .. 💕 किरण

निरंतर

उम्र का ये अजीब दौर है ! जिम्मेदारियों की तल्ख़ धूप भी तो तन्हाई में पसरी परछाइयाँ भी... अपने लिए छांव का एक टुकड़ा तलाशती, जलती हुई पगथलियां, शाम ढलने तक भूल जाती है तपिश... रात और नींद के संघर्ष के बीच क्षणिक सा विश्राम और फिर लौट आना अजनबी परछाइयों का... बेचैन करवटों के साथ अगली सुबह का इंतज़ार .. जैसे अल्प युद्ध विराम के बाद लौट आना युद्ध क्षेत्र में ! 💕 किरण