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Showing posts from October, 2014

एक कतरा ज़मीन

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और ...... कुछ और .... फिर कुछ और .... ऊँची उड़ान ली ख्वाहिशों ने ! ज़मीन से नाता टूटा और एक दिन आसमां भी छोटा लगने लगा ... होश तो तब आया जब परों ने साथ छोड़ दिया .... मुट्ठी भर आसमां भी अपना न हुआ ... अश्कों में भीगी हैं पर कांधा भी नसीब न हुआ .... उफ्फ ! काश एक कतरा ज़मीन अपने नाम कर ली होती .... थक कर लौट आने के लिए !!!! © विनिता सुराना किरण 

लाल जोड़ा (कहानी)

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विवाह का लाल जोड़ा हर लड़की का सपना होता है, जिसे वो खुली आँखों से देखा करती है | वही लाल जोड़ा सुमन के लिए श्राप बन गया था ..... आज वो दुल्हन बनने जा रही है पर न उसकी डोली को कंधा देने के लिए उसके बाबा होंगे न गले लगाकर नम आ ँखों से विदाई देने के लिए माँ, बहन, भाई या सखियाँ ही होंगी | हर दुल्हन की तरह, आने वाले कल के लिए उसकी आँखों में सुनहरे सपने नहीं बस आँसू झिलमिला रहे हैं, और याद आ रहा है वो मनहूस दिन जब उसके कस्बे में शहर से पूरे तीन साल बाद सुरजा काकी का बेटा ब्रिज आया था | हर महीने काकी को मनी आर्डर भेजने वाला ब्रिज जब स्वयं आया तो सारा क़स्बा उसके स्वागत में लग गया जैसे उनका अपना बेटा आया हो | उसी शाम भक्ति संगीत के आयोजन में मंदिर में सुमन और ब्रिज का आमना- सामना हुआ...... सांवली पर तीखे नैन-नक्श वाली सुमन को ब्रिज देखता ही रह गया और उसकी सुरीली आवाज़ ने तो पूरे कस्बे पर पहले से जादू किया हुआ था | एक गरीब किसान की चार संतानों में सबसे बड़ी सुमन सारे कस्बे की लाडली थी, संगीत का कोई भी आयोजन उसके बिना अधूरा माना जाता था | अगले ही दिन ब्रिज उसके घर पहुँच गया सुमन के लिए शहर में एक

बात

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बात ही बात में यूँ बात चली तुम्हारी बात हमारी बात इसकी बात उसकी बात तो बे-बात ही कुछ ऐसी बात हुई और बात-बात में बात ऐसी बिगड़ी कि बात भी न हुई अब क्या बात करें कैसे छेड़े फिर बात कि बात बन जाए ...... ©विनिता सुराना किरण  

दायरे

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अपने-अपने दायरों में सिमटे कितनी दूर चले आये हम कहाँ समझे तुम, कहाँ सोचा मैंने, कुछ तुम मेरे जैसे थे और मैं तुम सी ! साथ-साथ चलते रहे पर राहें जुदा सी, एक डोर बंधी थी मगर ढीली सी, न तुमने कसे बंधन न मैं ही बाँध पायी...... तलाशते रहे एक दूजे में, कुछ अनकहे सवालों के जवाब, ढूंढते रहे तपिश, सर्द जज्बातों में....... काश ! सुनी होती वो घुटी सी सदाएँ वो सिसकियाँ तन्हा दिलों की तो तोड़ देते वो बाँध और बह जाने देते सारे गिले-शिकवे जिन्हें न तुम लफ्ज़ दे पायें न मैं ही जुबां पर ला पायी काश ! ऐसा होता तो जान जाते तुम भी और मैं भी ..... कुछ तुम मेरे जैसे थे और मैं तुम सी ! ©विनिता सुराना किरण 

गहराई ( दोहा मुक्तक )

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ज़िन्दगी (मुक्तक)

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लहर-लहर अनुभव से सँवरती रही ज़िन्दगी।  गम के तूफानों में लरज़ती रही ज़िन्दगी। रोका तो बहुत ईर्ष्यालु चट्टानों ने मगर,  हौसलों की पाल से सरकती रही ज़िन्दगी ।  ©विनिता सुराना किरण

पञ्च चामर छंद (माँ को समर्पित)

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प्रसार धर्म का बढे व पाप का सँहार हो । सुबुद्धि ही सदा रहे व उच्च ही विचार हो। दुखी न दीन ही रहें, सदा दया अपार हो । न कर्म से हटें कभी, प्रयास में न हार हो । ©विनिता सुराना किरण

शोर

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इस अँधेरे का कहीं इक छोर तो हो। रात लम्बी थी 'किरण' अब भोर तो हो । कब तलक खामोश अब ये दिल रहेगा, टूटने का ही सही पर शोर तो हो । ©विनिता सुराना किरण

अग्नि नृत्य

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वो थिरकती ही गयी एक कुशल नृत्यांगना की तरह उसके सधे हुए कदम  मानो मिला रहे थे ताल एक अदृश्य ताल से, नवयौवना सी लोच लिए सुर साध रही हो मानो मंद-मंद बहती पुरवाई के संग... वो सुनहरी रंगत, वो हया की लाली, उसके रूप का तेज़, जो चुँधिया देता है आँखें ताकि पतित न कर दे कोई उसकी पवित्रता, स्निग्धता, सुर-ताल का वो सम्मोहन कुदरत की अनमोल शै से वो अद्भुत साक्षात्कार .... अपलक देखती ही रही मैं वो नयनाभिराम दृश्य 'अग्नि-नृत्य' ! ©विनिता सुराना किरण

बसंत

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मन के मुहाने पर जीवन की दस्तक हरियाला वन, शोख तितली अल्हड़ नदिया, निश्छल झरना हौले से खुलती-खिलती कली सावन की फुहार, बासंती बहार, गदराया गुलमोहर, महकता कचनार, प्रकृति के कितने रूपों की प्रतिनिधि बनी मैं..... वो निर्बाध, निरंतर अपनी निश्चित धुरी पर चलती रही कभी ढलती, कभी संवरती रही कितने रंग, कितने रूप बदले पर नहीं बदला स्वभाव अपना और लौट आई फिर-फिर .... पर क्या मैं लौट सकी ? यूँ तो हर ऋतु, हर मौसम आया बसंत जो गया तो फिर नहीं लौटा अब भी राह देखता है मन कुदरत की इस नाइंसाफी पर अब भी भीगता है मन .... ©विनिता सुराना किरण

दो क्षणिकाएं

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कितनी गहराई तक बस चुके हो तुम मेरे तसव्वुर में, हैरान हूँ हर इक कलाम मेरा डूबते-उतरते तुम्हीं पर जा ठहरता है | (1) शातिर हैं यादें तुम्हारी, खामोश लहरों सी चुपके से छूती है मन को मेरे और छेड़ जाती है साहिल पर बैठी   ख्वाहिशें मेरी | (2) © विनिता सुराना किरण