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Showing posts from March, 2016

सफ़र - आँखों से रूह तक

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हाँ देखती तो हूँ तुम्हें हर दिन, पर मेरी आँखों का सफ़र इतना छोटा नहीं कि रुक जाए ... तुम्हारे गंभीरता ओढ़े चेहरे पर कंजूसी से मुस्कुराते होंठों पर, ख़ामोश और उदास आँखों पर, जिनकी चुप्पी टूटा करती है कभी, जब तुम मुस्कुराते हो खुल कर... इनका सफ़र नहीं रुकता तुम्हारी मज़बूत कद-काठी पर, हाँ आकर्षक जिस्म लुभाता तो है इन्हें, पर वो इनकी मंज़िल नहीं इन्हें तो ज़ुस्तजू है उस मासूम अल्हड़ से बच्चे की जो छुप जाता है तुम्हारे मन के अँधेरे कोने में, ख़्वाहिशें रखता तो है उड़ने की पर अपने परों को इजाज़त नहीं देता... हाँ आरज़ू है पहुँचने की उस दिल तक जो जाने कितने अहसास दबाये है, धड़कता है पर ख़ुद से ही अनजान है, लुटाता भी है मुहब्बत पर अक़्सर भूल जाता है ख़ुद को सहलाना... हाँ ख़ूबसूरत हो तुम ! पर मेरी आँखें इस ख़ूबसूरती के पार अक़्सर तलाशा करती हैं वो रहगुज़र, जहाँ मुलाक़ात हो उस शख़्स से जो अनजाना सा अपना है, मिलना चाहती हैं उन अधबुने ख़्वाबों से, बिखरे से रंगों से, तन्हा लम्हों से, चुप सी ख़्वाहिशों से... सोचती हूँ इस बार आँखों से नहीं दिल से काम लूँ शायद कोई राह मिल ही जाए तुम्ह

एक मुलाक़ात रंगों से

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आज होली है न ! आओ चलो कुछ क़दम मेरे साथ तुम्हें मिलवाना है आज उन सारे रंगों से जो घुले हैं मुझमें.... थोडा सा जामुनी मेरी पलकों की दहलीज़ पर ठहरे उन अनदेखे ख़्वाबों का, जिन्हें अब भी इंतज़ार है तुम्हारा.. आड़ी-तिरछी सी गहरी नीली धारियाँ जैसे ज़ुबाँ देने की कोशिश करती उन दबे से एहसासों को जो जीते हैं कहीं गहराई में पर कभी बयाँ न हो पाएं... छितरा हुआ सा आसमानी नीला उन मासूम ख़्वाहिशों का जो यूँ तो आशना हैं रूह से मेरी फ़िर भी रहा करती हैं बेख़ुदी में बस जी उठती हैं कुछ देर के लिए तुम्हारा साथ पाकर.... कुछ बूँदें अज्ला (चमकदार) हरा जो बिखरने नहीं देता मेरी उम्मीदों को, उस नयी सुबह की जो हर लंबी स्याह रात के बाद आती है... कुछ नम सा पीला उस ऐतबार का, जो दिल के किसी कौने में आज भी महफ़ूज़ है, कि तुम्हें भी आरज़ू है मेरे साथ की.. कुछ रेखाएं उजास नारंगी जो अक़्सर आवाज़ देती हैं उन ख़ामोशियों को जो पसरी हैं मेरे आसपास यूँ ही... और ढेर सारा खुशबूदार सुर्ख़ क़िमिर्ज़ि (लाल) उस मुहब्बत का जो पुरज़ोर बहा करता है मेरी रगों में भिगोता है मेरी रूह को फ़िर-फ़िर जब भी तन्हाईयाँ बेचैन

अज़नबी

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अज़नबी है फिर भी तुझसे राब्ता क्यूँ है। गर मुहब्बत ही नहीं तो वास्ता क्यूँ है। अक़्स अपना ही दिखाई अब नहीं देता, आइना भी बस तुझे पहचानता क्यूँ है। ©विनीता सुराना 'किरण'