सफ़र - आँखों से रूह तक
हाँ देखती तो हूँ तुम्हें हर दिन, पर मेरी आँखों का सफ़र इतना छोटा नहीं कि रुक जाए ... तुम्हारे गंभीरता ओढ़े चेहरे पर कंजूसी से मुस्कुराते होंठों पर, ख़ामोश और उदास आँखों पर, जिनकी चुप्पी टूटा करती है कभी, जब तुम मुस्कुराते हो खुल कर... इनका सफ़र नहीं रुकता तुम्हारी मज़बूत कद-काठी पर, हाँ आकर्षक जिस्म लुभाता तो है इन्हें, पर वो इनकी मंज़िल नहीं इन्हें तो ज़ुस्तजू है उस मासूम अल्हड़ से बच्चे की जो छुप जाता है तुम्हारे मन के अँधेरे कोने में, ख़्वाहिशें रखता तो है उड़ने की पर अपने परों को इजाज़त नहीं देता... हाँ आरज़ू है पहुँचने की उस दिल तक जो जाने कितने अहसास दबाये है, धड़कता है पर ख़ुद से ही अनजान है, लुटाता भी है मुहब्बत पर अक़्सर भूल जाता है ख़ुद को सहलाना... हाँ ख़ूबसूरत हो तुम ! पर मेरी आँखें इस ख़ूबसूरती के पार अक़्सर तलाशा करती हैं वो रहगुज़र, जहाँ मुलाक़ात हो उस शख़्स से जो अनजाना सा अपना है, मिलना चाहती हैं उन अधबुने ख़्वाबों से, बिखरे से रंगों से, तन्हा लम्हों से, चुप सी ख़्वाहिशों से... सोचती हूँ इस बार आँखों से नहीं दिल से काम लूँ शायद कोई राह मिल ही जाए तुम्ह