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Showing posts from August, 2017

एक ख़त बस यूँ ही

अलसुबह के उनींदे ख़्वाब ,          मुझे बेइंतहा मोहब्बत है तुमसे !तुमसे मिलने को पूरी शब गुज़रने का इंतज़ार करती हूँ ..... सहर तुम्हारे आगोश में हो तो दिन अच्छा गुज़रेगा यक़ीनन ! यही सोचकर तो बीती रात दस्तक देते सभी ख़्वाबों को बेझिझक अलविदा कहे जाती हूँ, ताकि जब तुम आओ तो पलकों में तुम्हारी जगह महफूज़ रहे । थोड़ी सी नमी, थोड़ी सी गर्माहट पर कितना सुकून लिए आते हो तुम, जैसे सूखी सी ज़मीं पर फूट पड़ा हो कोई शीतल झरना बरसाती ... हाँ जानती हूँ अच्छे से, कि तुम ओझल हो जाओगे दिन के चुंधियाते उजास में,  पर तुम्हारा वो कुछ लम्हों में सुबह की मीठी धूप के साथ घुलकर मेरे मन को गुदगुदा जाना बहुत भाता है मुझे । वो आहिस्ता से आकर अंधेरे-अंधेरे मुझसे आलिंगनबद्ध होना और फिर भोर की पहली किरण को मेरे बालों में सजा देना, इतना ही काफी है मेरी सुबह को ख़ुशनुमा बनाने के लिए, और छोड़ जाने के लिए अगली शाम तक एक मीठा सा एहसास, एक कोमल सी छुअन, एक अतृप्त सी तिश्नगी ...पर ढेर सारा प्यार ! तुम्हारी किरण ❤

एक खत नन्ही बूँद के नाम

प्यारी सी नन्ही बूँद , तुम नटखट सी, तुम पगली सी, कभी शरारत से फिसलती, कभी शैतान सी कूद जाती, कभी जब दो घड़ी ठहर जाती मेरी हथेली पर तो सहेली सी लगती हो, मुझसे बतियाती हो, दुनिया जहां की मुहब्बत बिखेर देती जब हौले से मुस्कुराती हो, तन्हाई में ढुलक आये अश्क़ों से घुल मिल उन्हें अपनी बाहों में भर लेती हो, कभी तन - मन दोनों भिगो कर ठंडक देती ... पर सुनो जब कभी वो बचपन की कभी न लौट सकने वाले लम्हों की खट्टी-मीठी यादें खींच कर ले आती हो बाहर , वक़्त की संदूकची से और पहले प्यार की अनमोल विरासत में ताका-झांकी करती, मुझे सताती हो, तुम पर एक पल को नाराज़ हो उठती हूँ मैं ! क्यों करती हो ऐसे, बताओ न ? फिर भी जाने कैसा राबिता है तुमसे कि तुम्हारी हल्की सी छुअन से ही मेरी सारी नाराज़गी काफूर हो जाती है और अनजाने ही मुस्कान तैर जाती है लबों पर तुम्हारी मासूमियत देख कर ! हमेशा तुम्हारी  किरण ❤

एक ख़त तुम्हारे नाम

तुम अक्सर गुज़रते रहे मेरे ख़्यालों की रहगुज़र (रास्ता) से और मैं सोचा करती ...तुम ऐसे होंगे, तुम वैसे होंगे, यूँ हँसते होंगे,  यूँ बोलते होंगे.....जब मेरा नाम लोगे तो कैसे मुस्कुराओगे, क्या तुम्हारी आँखों में मैं वो सब पढ़ पाऊँगी जो अक्सर मेरे ख़्वाबों में आकर चुपके से कह जाते हो मुझे? हर गुज़रते दिन के हर लम्हे में तुम्हारी छवि गढ़ती रही, तुम्हें अपने काँपते हाथों से थोड़ा-थोड़ा उकेरती रही... डरती थी कहीं कुछ बिगड़ न जाए और जब तुम मिलो तो तुम्हें पहचान न सकूँ ! रंगों से खेलते हुए अक्सर यूँ ही कितने कैनवास रंग डाले, पल भर को नहीं सोचा कोई रंग बिखर जाएगा या अपनी परिधि (सीमा) से बाहर बह जाएगा ...पर जब भी तुम्हारे नाक-नक़्श अपने मन के कैनवास पर उकेरती, हाथ काँपने लगते इस अनजाने से डर से कि कहीं कोई रेखा छूट न जाए, कोई रंग हल्का या कोई रंग चटख न हो जाए... हाँ भर देना चाहती थी सारे रंग तुममें क्योंकि जानती थी तुमसे मिलकर ही ये सारे पूरे होंगे वरना सभी अधूरे होंगे, फीके होंगे ... कैसे कहूँ कितना इंतज़ार है तुमसे उस पहली मुलाक़ात का, जब शब्दों की सीमा टूट जाए ! बस तब तक इन शब्दों के साथ .. ©विनीता