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Showing posts from July, 2015

एक बेनाम ख़त #2

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आज फिर बेचैनी है शाम से ... नहीं ! कारण तुम्हारी व्यस्तता नहीं उसकी तो आदत हो चली अब, यूँ भी हमारे बीच कबसे अबोला है, शब्दों का नहीं विचारों का, शब्द हमारे बीच से यदा-कदा गुज़रते रहते हैं बस तुम्हारे मेरे बीच पुल नहीं बनाते.... कारण मेरी तन्हाई भी नहीं वो तो सहेली बन चुकी मेरी... शाम पूरे शबाब पर है जैसे विदाई की दहलीज़ पर दुल्हन सिन्दूरी आसमान सिरहन सी देती ठंडी बयार मानो धीमे-धीमे बज रही हो शहनाई दूर हल्के से टिमटिमाते तारें जैसे सजी-धजी बारात मानो चाँद के आने की राह देख रहें हो पर फिर भी मन बेचैन है... आज फिर से याद आया है वो ख़्वाब जो मेरी आँखों में झिलमिलाया था कभी, अपनी तन्हाई के सिवा किसी से साझा नहीं कर पाई , तुमसे भी नहीं, मेरे ख़्वाब अज़नबी जो लगते थे तुम्हें... बहुत हिफाज़त से संभाल कर पलकों में छुपाया था, अश्क़ों में नम वो ख़्वाब बहुत देर तक ठहरा था भीतर फिर ख़ुद ही डूबता चला गया उस खारे समंदर में और कभी नहीं उबरा... मैंने भी कहाँ रोकने की कोशिश की रोक कर करती भी क्या आख़िर कब तक बचा पाती, उसे सैलाब के संग बहने से, हमेशा के लिए खो जाने से... बस उस

एक बेनाम ख़त # 3

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बरसों बरस गुज़र गए उस रहगुज़र की तलाश में जो तुम से मिला दे, तुम तक पहुँचने की आरज़ू ने थकने नहीं दिया रुकने नहीं दिया मगर अंतहीन हो जब सफ़र तो थक ही जाता है मन, भले कुछ कहता नहीं पर अक़्सर ठिठक जाता है किसी दोराहे पर इस आस में कि शायद ये मोड़ आख़िरी हो और पगडंडी ही सही पर मिल जाए वो राह जो तुम तक पहुँचा दे और दो पल ही सही तुम्हारे आग़ोश में सब कुछ भूल जाऊँ..... वो लंबा इंतज़ार वो हर पल बिखरती आस वो अनकही बातें सारे शिक़वे.... कुछ क़र्ज़ भी तो है तुम पर मेरे, उनींदी रातें कुछ बेचैन ख़्वाब भीगी सलवटें तन्हा करवटें अधूरे गीत बिखरे अशआर रूठी कविताएँ.... सोचती हूँ क्या कभी मिलोगे और मिले तो चुका पाओगे ये क़र्ज़ या फिर कर जाओगे पलायन एक बार फिर और मैं यूँ ही भटकती रहूँगी तुम्हारी जुस्तजू में.... © विनीता सुराना 'किरण'

एक बेनाम ख़त #1

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तुम हमेशा कहते हो "तुम्हें मुहब्बत है मुझसे" पर ये कैसी मुहब्बत है जिसे मैं महसूस भी नहीं कर पायी, क्या ये वैसी मुहब्बत है.... जो पिंजरे में पाले हुए पंछी से होती है? या अपनी खरीदी हर उस चीज़ से जिसे बड़ी हिफाज़त से रखा है घर के महफूज़ कोने में? मुझ पर भी तो कुछ लम्हें खर्च हुए है तुम्हारे और तुम घाटा उठाओ ऐसे बुरे व्यापारी भी नहीं इसलिए मुझ पर कोई नज़र ठहरे ये तुमसे कभी बर्दाश्त नहीं हुआ, कुछ साँसें भी लेती हूँ तो लगता है एहसान है किसी का, उड़ने को आसमाँ है या नहीं कैसे सोचूँ , अभी तो ज़मीं ही तलाश रही हूँ, हर क़दम मेरा शायद मुझे दूर ले जाए तुमसे क्यूंकि तुम साथ कब चले हो, या तो आगे चले या चले ही नहीं.... कितनी रातों से सोई नहीं ये आँखें कि कहीं फिर वो ख़्वाब बेचैन न कर दे कहीं किसी दिन जुटा कर हिम्मत मैं चल न पडूँ एक अनजान सफ़र पर फिर लग जाए मुझ पर इल्ज़ाम स्वार्थी होने का ! जब-जब जीना चाहा तब यही तो तमगा दिया तुमने और मेरी कितनी ही रातें भीगती चली गयीं सहर भी हुई तो धुंध भरी आज तक दिखा नहीं पायी धूप अपने ख़्वाबों को, अपनी ख़्वाहिशों को, अब तो डरती हूँ