Posts

Showing posts from March, 2017

प्यार

वो जो कहते हैं प्यार नहीं दिखता आज नज़र बदलो नज़रिया बदलो विस्तृत है आसमाँ प्यार का कोई बादल का टुकड़ा नहीं पूरी आकाशगंगा है कोई ध्रुव तारा नहीं ... दूरबीन को हटाओ बस मन की आँखें खोलो हर शै में मिलेगा वरना ढूंढते रह जाओगे ! ©विनीता सुराना किरण

पहली कविता

Image
आड़ी-तिरछी रेखाओं के जोड़-तोड़ से गढ़ रही थी कुछ आकृतियों जैसी.... फिर टीचर ने कहा , “देखो कितने सुंदर होते हैं अक्षर बस थोडी और गोलाई दो इस रेखा को थोडा सीधा कर दो शाबाश ! देखो कितना सुन्दर लिखा तुमने ..” वो एक प्यार की , हौसले की थपकी और जाने कब अक्षर जुड़ने लगे शब्द सँवरने लगे ... पर मन कहाँ बंधता उन लाइनों वाले कागजों में तो कभी रंगी-पुती दीवार पर कभी दरवाजों के पीछे , कभी मेज की चिकनी सतह पर,  कभी सीमेंट के खुरदुरे फ़र्श पर, कभी थाली में छूट गयी पानी की बूंदों में, कभी कच्चे आँगन की मिट्टी में उभरने लगे ...शब्द फिर एक दिन रफ़्तार ली शब्दों ने और बहने लगे अनछुए अहसास , कच्ची नींद के ख्वाब , मन में दबी ख्वाहिशें , अपने-आप से कही ढेरों बातें ... “अरे तुम तो कविता लिखती हो !” “अच्छा ! क्या ये सचमुच कविता है ? पर मुझे तो आता ही नहीं कविता लिखना , बस यूँ ही जो कुछ कहना चाहती हूँ , कह देती हूँ इन खाली पन्नों से और इससे पहले कि कोई और देखे , झट से छुपा देती हूँ इन स्कूल की कापियों से फाड़े  टेढ़े-मेढ़े फटे पन्नों को” (यूँ ही क

पतझड़ और रंग

दूर जाने कौन बजा रहा है विरह की धुन ? उफ्फ ! ये कैसा मातम है ... चुभते हुए रुदाली से स्वर चीरते है भीतर तक, कोई तो रोके उसे, समझाए ज़रा .... हाँ माना पतझड़ की रुत है पर मेरी नज़र से देखो कैसे झरते हैं अहसास इन पत्तो में जैसे हर डाल ने भेजे हो महीनों से सहेजे प्रेम-पत्र मानो कह रहीं हो ... “लो बहुत संभाल लिए तुम्हारे साझा किये वे बेशकीमती पल, वे मीठी सी शिकायतें, वे मासूम उलाहने, वस्ल के लम्हे, और हिज्र की लम्बी रातें भी, अब रिक्त हो चुकी डालियों के कैनवास पर सजा लो अपने मनचाहे यादों के रंग, फूट जाएँगी फिर नयी कोपलें छा जाएगी अबीर हवा में भिगो देंगी फुहारें रंगों के त्यौहार में चितेरा-मन फिर ढालेगा रंगों में कुछ नक्श नए, कवि-मन फिर रचेगा शब्दों में कुछ प्रेम-गीत, और फिर सजेगी हर डाल पर नयी प्रेम-पातियाँ !” ©विनीता सुराना किरण