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Showing posts from May, 2014

अक्सर याद आती हैं ......

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वो बातें, वो मुलाकातें, वो रिमझिम बरसातें, अक्सर याद आती हैं.... दबे पाँव आँगन में चुपके से तेरा आना हथेली में भरी बूँदें और छप से छींटें उड़ाना इशारों-इशारों में बिन बोले सब कह जाना शरारत लिए निगाहों में वो हौले से मुस्कराना थाम कर हाथ मेरा धीमे से गुनगुनाना वो नगमे अल्हड प्रेम के वो मीठी धुन मुहब्बत की अक्सर याद आती है ....... छोटी-छोटी बातों पर मीठी सी तकरार एक झलक पाने को घंटों तक इंतज़ार बेसब्री की रातें और दिल बेक़रार सताने को झूठ-मूठ शरारत का इनकार और मनाने को फिर मीठा सा इज़हार वो पल-छिन, वो लम्हा जब रूठी थी बहार तुम चले एक सफ़र पर हम रह गए इस पार वो अधूरे से नगमे वो अधूरी सी प्रीत अक्सर याद आती है....... ©विनिता सुराना 'किरण'

पर्वत और नदिया

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धीर-गंभीर , तुम पर्वत हो चंचल-चपला , मैं नदिया हूँ स्नेहिल मधुरिम रसधारा हूँ प्राण-शक्ति तुम्ही से मिलती विशाल-हृदय , सुदर्शन हो तुम मुक्त-माल बन कंठ शोभती हारो , थको , न झुको कभी तुम ये सीख सदा तुमसे मिलती संघर्ष थकाते नहीं कभी जीवन-रसधारा जब बहती सम्पूर्ण हो , सार-गर्भित हो सतत संघर्ष के प्रेरक हो अनेक पड़ाव , जीवन में हो  उत्स्रोत सदा तुम मेरे हो ©विनिता सुराना 'किरण'

ग़ज़ल

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जिधर देखा उधर साए नज़र आये लुटी इंसानियत देखी तो घर आये दरारें भर नहीं पाते गुलाबी ख़त गिले शिकवे मिटे महबूब गर आये तबीअत है बड़ी रंगीं ज़रा संभलो   शरारत घर जलाने बन शरर* आये (चिंगारी) फ़जीअत* हर कदम रोके न तुम रुकना (दर्द, विपदा) कहाँ यावर* कोई बन हमसफ़र आये  (सहायक) सितारों की तो फ़ितरत है दगा देना करे रोशन ‘किरण’ इक जब क़मर* आये (चन्द्रमा)  ©विनिता सुराना 'किरण' 

ग़ज़ल

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नज़र पर भरोसा दिखाना नहीं है  कि इसका कोई इक ठिकाना नहीं है  रखो फ़ासले अब ज़रा ख्व़ाब से भी हकीक़त से आँखें चुराना नहीं है नुमाइश न कर दौलत-ए-हुस्न की अब भरोसे के काबिल ज़माना नहीं है अजीज़ों के दर पर ज़रा कम ही जाना अदब का कहीं अब खज़ाना नहीं है मिले फुर्सते बात दिल की सुनाना कोई और दिलकश तराना नहीं है ज़ियापाश* है वो तिमिर में ‘किरण’ सी पराई है बिटिया, जताना नहीं है ©विनिता सुराना ‘किरण’

ये कैसा बाज़ार है ?

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ये कैसा बाज़ार है ? ये कैसा व्यापार है ? बिकती मासूमियत औ’ बेबसी रिवाजों की आड़ में. बचपन बिकता कौड़ी के मोल लालच के बाज़ार में. बेटियों का सौदा करते ये कैसे हैवान है? सुनहरी सिक्कों की खनक में बिकता यहाँ ईमान है. ये कैसा व्यापार चले शिक्षा के बाज़ार में? लक्ष्मी का सौदा करते सरस्वती की आड़ में. दर्द और आँसू के मोल हर दिन बिकती है रोटी. स्वाभिमान की हर क्षण तिल-तिल मृत्यु होती. चीखती आबरू, घुटी सिसकियाँ कौन सुने यहाँ, बहरा हर इंसान है. इंसानियत का सौदा करता बिकता स्वयं इंसान है. ©विनिता सुराना ‘किरण’