एक और अनाम ख़त

कुछ ख़ास था वो दिन
जब तुम मिलने आये थे।
कनखियों से देख मुझे
हौले से मुस्कुराये थे।
अनकही सी कुछ बातें,
ख़ामोश पल अनगिनत
मगर भीगे से एहसास लिए
तुम क़रीब चले आये थे।
सुबह की पहली किरण सा
नर्म उजास लिए
यूँ दाख़िल हुए
मेरी ज़िन्दगी में,
देर तक तुम्हारी आँखों में
खोजती रही
कि शायद कोई तो खोट हो
और तुम्हें दूर जाने के लिए कह सकूँ
पर भीगती ही चली गयी
तुम्हारी रिमझिम मुहब्बत में,
पढ़ती गयी पन्ना दर पन्ना
वो ख़ूबसूरत सा प्रेम-पत्र,
खुशबुओं में घिरी
वो अज़ब सी मदहोशी थी
जूनून था तुम्हारा
या बेख़ुदी मेरी..
जो भी हो
हर लम्हा ख़ास था..
ख़्वाबों की रेत से
यादों के हसीं घरौंदे बनाते गए हम,
जानती थी एक लहर आनी है
बहा ले जायेगी सब कुछ
पर बावरा मन था
जो समेटता रहा
तिनका-तिनका एहसास
गढ़ता रहा इश्क़ !
कोरे से मन पर कितने रंग बिखरे,
पर मैं कहाँ रंग पायी किसी रंग में ?
हाँ कुछ छींटे ही थे बस मेरे हिस्से में,
इससे ज्यादा हक़ न ही मोहलत दी वक़्त ने,
रह गयी फिर
आधी-अधूरी सी मैं,
बैठी हूँ आज भी किनारे पर
शायद फिर कोई लहर
ले आये पैग़ाम-ए-मुहब्बत!
तुमसे इक मुलाक़ात की आरज़ू में
तुम्हारी बस तुम्हारी ...
©विनीता सुराना 'किरण'

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