सज़ा


नहीं तुम्हें दोष नहीं दूंगी
इस अलगाव के लिए,
तुम्हारे अचानक लौट जाने के लिए,
नहीं दे सकती तुम्हें बददुआ कोई
प्रेम जो करती हूँ तुमसे,
साथ चलने का फ़ैसला हम दोनों का था,
प्रेम को अंधा कहते हों भले
पर आँखें खुली थी मेरी जब तुम्हें चुना था,
संग तुम्हारे वो ख़्वाब बुना था,
जानती थी ये भी
अगर किसी वजह से
किसी एक को रास्ता बदलना पड़ा
तो शायद टूटन मेरे हिस्से ज्यादा आएगी
पर मेरे प्रेम ने बहुत हिम्मत दी मुझे
तब भी और अब भी.....
नहीं कहूँगी तुमसे लौट आने के लिए,
जानती हूँ तुम नहीं आओगे,
तुम खुश न होकर भी रह लोगे मेरे बिना
क्योंकि पुरुष होने की सज़ा
भोगने को मजबूर हो,
एहसास कमज़ोरी लगते है तुम्हें
और पुरुष होकर तुम कमज़ोर तो नहीं हो सकते,
ये तो ख़िलाफ़ होगा उन नियमों के
जो तुम जैसे पुरुषों ने ही बनाये हैं,
अगर आँखों में  नमी आयी कभी याद करके मुझे
और मेरे संग बिताये लम्हें,
तो दबा लोगे उसे कहीं भीतर ही,
पुरुषों के लिए आँसू नहीं होते
वो तो कमज़ोरी की निशानी है
इसीलिए उन्हें औरत से जोड़ दिया,
इस निष्फल प्रेम का भार भी
मुझ पर छोड़ दिया तुमने...
पर मैं कमज़ोर नहीं हूँ....
जीऊँगी तुम्हारे बिना भी
ज़िंदा रखूँगी अपने प्रेम को भी,
याद आएगी जब कभी
तो जी भर रो लूँगी,
वो फ़ैसला भी मेरा था
ये फ़ैसला भी मेरा है...
तुम पुरुष होने की सज़ा भोगो,
मैं औरत होने का गौरव जीऊँगी!
©विनीता सुराणा 'किरण'

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