साँझ

एक लंबा सफ़र
कुछ पुरानी यादें,
बमुश्किल जीवित बची कुछ ख्वाहिशें,
भीगकर बोझिल हुए कुछ ख़्वाब,
रिश्तों के अवशेष सहेजे
आ पहुँची हूँ
उस मोड़ पर
जहाँ स्वयं को
पाती हूँ  नितांत अकेली...
सोचती हूँ ,
क्या ये अंतिम साँझ है
या इस रात के झुरमुट के उस पार
फिर उदय होगा भास्कर ?
©विनीता सुराना 'किरण'

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