अपूर्ण

फुर्सत के इन लम्हों में
जब कभी मिलती हूँ ''तुमसे"
जाने कितने प्रश्न उमड़ने लगते हैं भीतर
होड़ सी मच जाती है उनमें
एक दूसरे से आगे निकलने की,
आधा-अधूरा रहना किसे पसंद है आख़िर?
एक उत्तर का साथ पाकर
होना चाहते हैं पूर्ण सभी...
मेरे और तुम्हारे बीच का पुल
चरमराने लगता है
डर जाती हूँ कहीं ढह न जाए
और मेरे प्रश्न अधूरे ही 
टुकड़ों में बिखर न जाएँ .....
कहीं तुम्हें मुझसे शिकायत तो नहीं
कि इस दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में
मैं समय नहीं दे पाती तुम्हें?
तुम्हीं बताओ,
अगर ले जाऊँ तुम्हें भी
उस स्वार्थ के जंगल में
तो क्या तुम खुश रह पाओगे,
अपने अस्तित्त्व को खोकर
उस भीड़ में वो सब देख पाओगे
जो मैं हर दिन देखती हूँ 
न चाहते हुए भी ...
स्वार्थ की आँधी में
सूखे पत्तों से बिखरते रिश्ते
शीशे से चटकते दिल
अमरबेल सी बढ़ती दीवारें
सिसकते आँगन
ठोकरों में मासूम
चीखती जिंदा लाशें
लुटते जज़्बात
कुचली हुई कलियाँ
उफ्फ्फ्फ़...... इतना दर्द कैसे सह पाओगे
और अगर सह भी लिया तो क्या
उस दर्द के साथ जिंदा रह पाओगे?
इसीलिए तुम्हें महफूज़ छोड़ कर जाती हूँ
अपने भीतर के आखिरी लॉकर में
ताकि जब भी वापस लौटूँ
तुम्हारे स्वार्थरहित, निर्मल रस से
“स्वयं” को पोषित कर सकूँ
अपने अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर तलाश सकूँ
तुम्हारे साथ कुछ पल के लिए ही सही
अपने अधूरेपन को पूर्ण कर सकूँ
और जुटा सकूँ हौसला
एक नए संघर्ष भरे दिन के लिए !
©विनिता सुराना 'किरण'

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