दायरे


अपने-अपने दायरों में सिमटे
कितनी दूर चले आये हम
कहाँ समझे तुम,
कहाँ सोचा मैंने,
कुछ तुम मेरे जैसे थे
और मैं तुम सी !
साथ-साथ चलते रहे
पर राहें जुदा सी,
एक डोर बंधी थी
मगर ढीली सी,
न तुमने कसे बंधन
न मैं ही बाँध पायी......
तलाशते रहे एक दूजे में,
कुछ अनकहे सवालों के जवाब,
ढूंढते रहे तपिश,
सर्द जज्बातों में.......
काश ! सुनी होती
वो घुटी सी सदाएँ
वो सिसकियाँ तन्हा दिलों की
तो तोड़ देते वो बाँध
और बह जाने देते
सारे गिले-शिकवे
जिन्हें न तुम लफ्ज़ दे पायें
न मैं ही जुबां पर ला पायी
काश ! ऐसा होता तो जान जाते
तुम भी और मैं भी .....
कुछ तुम मेरे जैसे थे
और मैं तुम सी !
©विनिता सुराना किरण 

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