बसंत

मन के मुहाने पर
जीवन की दस्तक
हरियाला वन, शोख तितली
अल्हड़ नदिया, निश्छल झरना
हौले से खुलती-खिलती कली
सावन की फुहार, बासंती बहार,
गदराया गुलमोहर, महकता कचनार,
प्रकृति के कितने रूपों की
प्रतिनिधि बनी मैं.....
वो निर्बाध, निरंतर अपनी
निश्चित धुरी पर चलती रही
कभी ढलती, कभी संवरती रही
कितने रंग, कितने रूप बदले
पर नहीं बदला स्वभाव अपना
और लौट आई फिर-फिर ....
पर क्या मैं लौट सकी ?
यूँ तो हर ऋतु, हर मौसम आया
बसंत जो गया तो फिर नहीं लौटा
अब भी राह देखता है मन
कुदरत की इस नाइंसाफी पर
अब भी भीगता है मन ....
©विनिता सुराना किरण

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