तुम ही आये थे न

अकेले रहने से कभी घबराहट नहीं हुई न ही किसी के साथ न होने की कमी खली.. शायद बचपन से तन्हाई पसंद रही हूँ, एक हद तक आज भी वैसी ही हूँ पर अब किसी से भी बात करने में झिझक नहीं होती । हाँ मगर बात कितनी लम्बी होगी ये सामने वाले पर अधिक निर्भर कि वह मुझे कितनी देर झेल सकता/सकती 😜
   अलीबाग में beach पर वो भीगी सी भोर कुछ अजीब थी। दूर तक ख़ामोश आसमान और पैरों के नीचे नर्म रेत का गलीचा, कमरे से सोच कर निकली थी सैर के लिए पर जाने क्यों मन हुआ कुछ देर बैठ जाऊँ वहीं ... धुंधलके में एक दो आकृतियां तो दिखीं चहलक़दमी करती हुईं मगर जैसे मेरे लिए उनका कोई वुजूद था ही नहीं उस समय। लहरें मगन थीं अपनी पकड़ा-धकड़ी में, मगर मुझे बस समुद्र की गहराई महसूस हुई, गंभीर और तटस्थ समुद्र चंचल लहरों को हँसते-खेलते निर्विकार भाव से देखता हुआ । उस एक पल में जाने क्यों किसी के साथ होने का एहसास हुआ, दाएं-बाएं, आगे-पीछे, कोई नहीं मगर फिर भी वह एहसास, कुछ तो था जो समझ से परे था या शायद मेरी कल्पना मगर उसके होने का एहसास दिमाग़ में उठते हर प्रश्न पर भारी था...
       ख़ुद को आलिंगनबद्ध किये देर तक बैठी रही गीली रेत पर, बीच-बीच में लहरें आकर चुहल करती रहीं, भिगोती रहीं तन, मगर मन ... जाने किसके एहसास में भीगता रहा । चुपके से पूछना चाहा तब भी और आज भी .. "सुनो, तुम ही आये थे न ?"

#सुन_रहे_हो_न_तुम

©विनीता किरण

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