एक उदास शाम

ढलती सांझ से अच्छा कोई वक़्त नहीं होता ज़िन्दगी के पन्ने पलटने के लिए ... अपना किया अच्छा-बुरा, सही-गलत परखने के लिए ।
       याद है बचपन की वे गलियां और बनती बिगड़ती दोस्ती, हर दिन दसियों बार कट्टी और बीसियों बार अब्बा, वे मासूम झगड़े और छोटी-छोटी बंदरबांट ... "सुन दो कंचे ले ले बस एक बार तेरा वह मेले वाला चश्मा लगाने दे।"
"तेरे गुड्डे को मेरी गुड़िया पसंद है तो क्या, मैं तो नहीं भेजती मेरी गुड़िया... जा नहीं करनी मुझे उसकी शादी।"
"तेरी बहन है न बिल्कुल वैसी मेरी मम्मी भी लायी है... पर हम उसको छुपा कर रखते।"
          याद है नए-नए एहसासों की वह पहली दस्तक जब हर नज़र अपना पीछा करती महसूस होती थी। किसी की एक सहज मुस्कान में भी मायने तलाशा करता था मन और जाने कितने ही काल्पनिक कथानक हर रोज गढ़ लिया करता था। ख़ुद से बाते करना और जब-तब आईने में ख़ुद का अक्स निहार लेना प्रिय शग़ल हुआ करता ।
          हाँ सब कुछ अच्छा और सच्चा भी नहीं था, मासूमियत थी तो कुछ अनचाहे स्पर्श भी थे, अल्हड़ सी उन खुशियों के बीच कुछ कुत्सित निगाहों की खरपतवार भी थी, जिन्हें कुदाल से उखाड़ फैंकना था पर जाने क्यों ज़ुबाँ ख़ामोश और हाथ सुन्न हो जाते बस ख़ैरियत यही कि वह खरपतवार नहीं छीन पायी उस पौधे के पनपने के लिए जरूरी खाद, पानी, हवा और न ही कुचल पायी मोहब्बत के फूल को... पर हर बचपन, हर यौवन इतना ख़ुशक़िस्मत कहाँ होता है, कुछ कलियां गुलशन के माली भी कुचल दिया करते हैं, उनका खैरख्वाह न ईश्वर होता न ख़ुदा और हम बस तमाशबीनों की तरह देखा करते हैं तमाशा उनके पल-पल बिखरने का ....

©विनीता किरण

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