रात की चादर

कुछ बातें दिन की भागमभाग में नहीं रात की नीरवता में ही समझ आती हैं इसीलिए बेसब्री से इंतज़ार करती हूं दिन के गुज़रने और रात के ठहरने का। रात की सियाही जाने कितने ऊष्ण रंग सोख लेती है ख़ुद में मगर फिर भी नहीं खटकती आंखों में ... घोल कर पी जाती है बहुत से अनचाहे सवाल और बचा लेती है मन के कोमल रेशों को एक अंतहीन युद्ध से ...
       बिना सिलवटों की चादर, दूधिया सफ़ेद गिलाफ़ वाला तकिया और तुम्हारे क़रीब होने का एहसास, बस यही तो चाहिए होता है नींद को, घेर लेती है आकर और करती है अपने मायाजाल में उलझाने की भरपूर कोशिश मगर मैं भी कुछ लम्हे चुरा लेती हूँ ताकि बुन सकूँ थोड़ी और नज़दीकियाँ, समेट सकूँ तुम्हारी ख़ास महक अपने में ... अजीब है न ये तश्नगी जो कभी कम न हुई ... रातों को कुछ देर और जागना और सुबह कुछ देर और सोना हमेशा से पसंद रहा है मुझे पर तुम तो सब जानते हो, मुझे मुझसे बेहतर या तो रात समझ सकती है या तुम ... हाँ तुम मेरी 'रात' ही तो हो ! सुनो, फिर से कसमसाने लगे है कुछ अनचाहे सवाल, क्या मेरी चादर बनोगे ? सोना चाहती हूं अब ... एक लंबी, गहरी नींद ...

#सुन_रहे_हो_न_तुम
©विनीता किरण

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