हाँ यूँ ही याद आते हो 'तुम' !

जाने क्यूँ इतना याद आते हो 'तुम'
ये कैसी कशिश है,
कैसा है जादू,
कि साथ न होकर भी
अपने होने का अहसास जगाते हो 'तुम' !

रात-रात भर जागती हैं आँखें यूँ तो,
पर पलक जो झपकी पल भर को,
मीठा सा ख़्वाब रख जाते हो 'तुम' !

जाने कब हो हासिल-ए-मंज़िल,
मुक़म्मल हो ये तलाश सदियों की..
हाँ मगर, मेरी तन्हाइयों में
अक़्सर गुनगुनाते हो तुम !
यूँ ही बार-बार याद आते हो 'तुम' !
©विनीता सुराना किरण

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