काश !

काश !
काश तुम लौट आओ किसी दिन
यूँ ही,
जैसे अचानक चले गए थे
बिना कुछ कहे-सुने,
यहीं मिलूँगी तुम्हें
इसी मोड़ पर
जहाँ शाम ने साथ छोड़ा
शब गहराई
पर फिर कभी सहर न आ पायी..
ऐसा भी नहीं
कि मैं रुक गयी थी
तुम्हारे चले जाने से,
पर ये भी सच है
ज्यादा दूर न जा सकी,
बार-बार मुड़ के देखती रही,
शायद तुम लौट आओ,
उम्र भर के लिए नहीं,
कुछ पल के लिए सही,
बस इक आख़िरी मुलाक़ात के लिए ...
जानती हूँ
यूँ भी सबको
कहाँ होता है हासिल
इक मुक़म्मल जहां !
©विनीता सुराना किरण

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