इंसानियत

कहाँ खो गयी तुम ?
कहाँ ढूँढू तुम्हें ?
बेरहमी से क़त्ल हुआ तुम्हारा
या
कहीं ज़िंदा जला दिया तुम्हें ?
अब राख़ में दबी हैं
चिंगारियाँ,
धधकने को आतुर...
शमसान सी नीरवता को चीरती है
तो बस कुछ चीखें
कल मृत हुई कुछ धड़कती साँसों की !
तुम होती तो शायद मरहम लगाती
रिसते ज़ख्मों पर,
उजड़ी हुई फ़सलों में भी
तलाश लेती कुछ बीज़
और नए पौधों की जड़ें
जकड़ लेती उखड़ी मिट्टी के कणों को,
बचा लेती संवेदनाओं को बह जाने से,
आवेग के बहाव में...
कहाँ दफ़न किया तुम्हें
इन नादानों ने ?
कितना पुकारा मैंने तुम्हें,
कहाँ हो तुम .......
"इंसानियत" 😞😞
©विनीता सुराना 'किरण'

Comments

Popular posts from this blog

लाल जोड़ा (कहानी)

एक मुलाक़ात रंगों से

कहानी (मुक्तक)