उनकी दास्तान (5)

     
और शांम एक बार फिर यादों की बारात लेकर चली आयी। ये मौसम था बदलियों और बिजलियों का। चान्द सितारों के साथ बादलों के आंचल की ओट में छिपकर अपनी चान्दनी के साथ फ़ुर्सत के लम्हों का लुत्फ़ उठा रहा था और रिमझिम के तराने गाती रात अपने शबाब के लड़कपन में थी। ऐसे में भी जैसे कबि्रस्तान के किसी कजऱ् को चुकाने के लिये वो दीवानी आज फिर उसी रस्से से उतर कर चली जा रही थी।

    वो भी उधर कैसे रह सकता था। अपने महबूब को कामयाबी की मुबारक़बाद देने चल दिया। इस कामयाबी को कब्रिस्तान से जि़न्दगी मिली थी और जि़न्दगी की इसी कामयाबी की मुबारकबाद आज  कब्रिस्तान तक पहुंचानी थी।

        हमेंशां की तरह उसी क़ब्र पर वे दो रूहें मिली लेकिन आज दिलरूबा चुप था। सिफऱ् हवा की सांय-यांय और की दुनियां से बेखबर वे दोनों..... जो अपने ख़्वाबों की दुनियां में बे-आवाज़ चले जा रहे थे।
उधर नवाबजादी की सहेली का हाल ये था कि वो आंसू की बून्दों के साथ अपने क़त़्ल की घडि़यां गिन रही थी। अब तो सिर्फ़ एक दिन बाक़ी था। उस दोनों आशिकों के लिये कितना बड़ा था ये एक दिन कि वो मिले बिना नहीं रह सके और इस ग़रीब के लिये कितना कम वक़्त रह गया था जब उसके अनकहे अरमानों का जनाज़ा उठ जायेगा। एक दिन बीतते क्या देर लगती है यूं लगता है जैसे कोर्इ घर में आने वाला दरवाज़े पे खड़ा हो और दरवाज़ा खोले जाने का इन्तज़ार कर रहा हो।

     इस वक़्त वो अपने आप को उस दो राहे पे खड़ा पा रही थी जहां अपनी मुहब्बत का इज़हार या मौत को गले लगाने का इक़रार ..... दोनों में सक एक फ़ैसला उसे करना था। पहले तो अपनी मुहब्बत का इज़हार करना ही उसे सही रास्ता लगा, लेकिन उसके अक़्स ने फिर एकबार उस पर हजार तोहमतें लगायी। चीखना चाहा लेकिन एक बार फिर उसकी चीख सुबकियों में बदल गयी। चीखा तो केवल आसमान। बनाने वाले ने उसकी तक़दीर ना मालूम किन घडि़यों में बनायी थी।

   एक शमा की तरह जी रही थी वो। जिसे हर रात हवेली की छत पर नवाबजादी सुलगाकर चली जाती और वो महबूर सारी रात छतम पर जलती रहती। जलते-जलते उसकी उम्र अब बहुत कम रह गयी थी। दरहकीक़त वो शमा जलने से ज़्यादा टूटकर बिखर गयी थी। अब उसकी लौ काँप रही थी और इन बरसाती हवाओं से लडने की ज़्यादा ताक़त उसमें नही बची थी। आखि़ार उस शमा को बुझना ही था। यही फै़सला उस कनीज़ को करना पडा। शायद हर दर से ठुकरायी हुर्इ उस बदनसीब को मौत अपनी गोद में पनाह दे दे।

    लेकिन उसने अकेले बुझने का इरादा नहीं किया था। वो शमा अपने साथ उन र्इश्क के परवानों को ले जा रही थी जो उसकी रोशनी में मुहब्बत के पंख लगाकर उडते-उड़ते बहुत दूर जा पहुंचे थे। हां.... वो कनीज़ अपनी ज़ात पर आ गयी थी और ख़्ाुद को मिटाने के साथ उन दोनों मुहब्बत के फ़रिश्तों को भी ख़्ात्म करने की नीयत पक्की कर चुकी थी।

       जिस घडी उसका ये इरादा हुआ, बादल गरज़कर चीख पड़े, बिजजियां कड़ककर तड़पने लगी और आसमान रोने लगा। जैसे ये सब उससे अपना इरादा बदलने को कह रहे हों। पगलार्इ हवा के एक तेज झोंके की मदद से खिड़की का पर्दा उड़कर उसके कदमों पे आ गिरा। उसे बेदर्दी और बेइज्ज़ती से पांवों से ठुकराकर अलग किया तो बारिश की बून्दों ने उसके पांव चूम लिये। किसी को बेआबरू कर घर से निकालने के अन्दाज़ में खिड़की के पल्लों के धकियाते हुए बन्द किया तो हवा और बारिश की बून्दे खिड़कियों पर थपकियां लगाकर उससे अपने शैतानी इरादे को बदलने के लिये कह रही हों। जब नालाकश बून्दों की फ़रियाद बेअसर रही तो ताक पर रखे चिराग़ ने उसके क़दमों पे गिरकर अपना सर फोडकर अपना वज़ूद मिटा दिया। जैसे कह रहा हो कि उसे मिटा कर ही सब्र कर ले।

       मगर उस बुझे हुए चिराग़ का टुकडे-टुकडेे बिखरा हुआ अक्स और मायूस धुआं भी जलते हुए दिल को ठण्डा नहीं कर सका। चिराग़ के बुझने से उस काली कोटरी के पसरे हुए अन्धेरों में भी उसकी आंखों में किसी की दुनियां को जला देने वाले उसके इरादों के शोले चमक रहे थे। अब उनमें बेबसीके आंसू न होकर एक ऐसे आशियाने को खाक़ करने की आग थी जिसको बनाने में ख़ुद उसकी अहम शिरकत थी।

       अब तक उसकी सिसकियां भी सिमट चुकी थी और वो उस क़ातिल घड़ी का इन्तज़ार कर रही थी जब वो अपने क़ातिलों को इस क़दर ज़ख़्मी कर देगी कि आइन्दा वो किसी ग़रीब की गर्दन पर कटार ना चला सकेगें। एक इतमीनान की लहर उसके चेहरे पर आकर ठहर गयी थी।
मुर्गों ने रात खत्म होने का एलान किया। दो साये एक मज़ार से उठकर हाथ में हाथ पकड़कर कदम से कदम मिलाकर कबि्रस्तान की ज़मीन को रौंदते हुए बढ़ रहे थे। आसमान के आंसूओं से सारा जहां भीगा हुआ था। दरिया का पानी अपनी रोजमर्रा का कलकल का गीत गा रहा था और भीगी हुर्इ हवाओं में ये साये एक दूसरे को हाथ हिलाकर विदा कर रहे थे।
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       नवाब के गांव में हर गली युं सजी हुर्इ थी जैसे उस गांव के हर घर में शादी हो। उसकी हवेली की शान देखने के क़ाबिल थी। भरपूर रोशनी के लिये जंहा-तहरा बडे-बडे शमादान रखे थे। फ़व्वारों की रंगीन कतारें हवेली की चार दीवारी के कोने-कोने में फ़ैली हुयी थी। जिस दरवाज़े के नीचे से बारात गुजरनी थी उसको बनाने में एलमगीरों ने अपना सारा इल्म भर दिया था। खुदा के ज़नानखाने सी हसीन लगने वाली हवेली में खुदा की किसी ख़्ाास जानेमन की तरह सजी-सजी लवाबजादी रेशम के महीन-महीन पदों में क़ैद थी।

     कल बारात आने वाली थी और गांव का बच्चा-बच्चा तैययारियों में लगा था। दोनों सहेलियां आपस में बतियाती खिलखिलाकर हंस रही थी। क़नीज़ जानती थी कि कल तक आसमानों में कड़कने वाली बिजली जो नहीं कर सकी थी वो आज की रात इस छोटे से कमरे में कर दिखायेगी। फिर जि़न्दगी का आज ही तो आखि़री दिन था। आने वाली सुबह से तो कल रात ही विदा ले ली थी। आज जैसी हंसी तो इन होंठों पे खिली ही नहीं थी। हर रात इन आंखों ने दिल की आग को आंसूओं में बहाया है..... कम से कम आज तो फूलों की ठण्ड़क का अहसास होने दो। कितनी ही रातें आंखों में काली की थी और आज उन्हें कभी न ख़्त्म होने वाली नीन्द में जाना था तो क्यों नहीं उन्हें भी रोशनी से जान पहचान करने दी जाये?

     दिनभर वो उस दुल्हन बनने वाली को छेड़ती रही। बिचारी नवाबजादी शरमाकर रह जाती। कभी गालों को मसल देती तो वो नाज़ुकबदन चिहुंक कर रह जाती। कभी जुल्फों में उंगली ड़ालकर धीरे-धीरे बल लगाती और कभी ठुडडी पकडकर आंखों में आंखे ड़ालती। कभी किसी बात पर नवाबजादी पल्लू होंठों में दबा लेती तो कभी दांतों में उंगली दबाकर नज़रे ढुका लेती।

    शांम होने में थोडी देर बाकी थी। आसमान सुबह से ही रह-रह कर आंसू टपका रहा था। जैसे किसी रोते हुए को दिलासा देने पर वो चुप हो जाता है लेकिन याद आते ही वो फिर रोने लगे। शांम पैग़ामे-मौत लेकर आने वाली थी कि बादलों ने फटना शुरू कर दिया। शायद उनसे वो सब देखा नहीं जाता इसलिये दो बून्द टपकाते हुए अन्धेरों में छिप जाने के लिये जगह ढूंढने चल दिये।

     और तब सूरज की लालची किरणों ने नवाब के गांव की ज़मीन के उस हिस्से पर रेंगना शुरू किया जहां उसने सुर्ख कुमकुम बिछवाया था। भीगा हुआ कुमकुम ताज़ा खून का हौज़ नज़र आ रहा था, लेकिन बारिश से नहाये हुए मकान किसी बारात में जाने को तैयार नज़र आते थे।

       शांम का वक़्त हो चला था। बरसात के बाद खिली हुर्इ धूप का नज़ारा लेने वो अपनी सहेली के साथ हवेली की छत पर आयी थी जैसे नज़ारों की किस्मत पे रहम करने आयी हो। डूबता हुआ सूरज मानों दफनाया जाता हुआ कोर्इ दीवाना अपनी महबूबा को पुकारते-पुकारते अपनी फटी हुर्इ रग़ों से निकले खून के सैलाब में डूब गया हो। खेत में काम करने वाले किसी किसान की दतिया सी पैनी धार लिये चान्द भी उस नूर का दीदार करने निकला था जिसे लोगों ने र्इद का चान्द कहा।
उधर ये हाल था, इधर उस फ़क़ीर के गांव में लोगों के जोश का क्या कहना। नवाब की बेटी को अपनी बहू कहने के ख़्याल से महसूस किये हुए फ़ख़्र ने आंखों में नूर, चेहरे पर तूर और चाल में एक गज़ब की अदा भर दी थी। नवाबजादी की खुशआमदीद और अपनी बहू के आने की खुशी में गांव भर को हर मुमकिन कोशीश से ज़्यादा सजाया गया था। सोने की गोट लगाये हरा दुप्पटटा ओढे वो शहजादे का मकान आज सफ़ेद चान्दी की सुलगती हुयी मशाल बन चुका था। खुदा की खास जानेमन के कमरे की तरह सजे हुए कमरे में उस नूर को अपने आंचल के बादलों की ओट में छिपाये हुए उसकी मां उसके पास बैठी रही।

      दिन बीतने के बाद ठण्डे मौसम को शांम की ठण्डी हवाओं ने और ठण्डा कर दिया। काली घटाएं इस क़दर घुट रही थी गोया किसी कारखाने की चिमनी धुआं उगल रही हो या किसी डायन के बिखरे हुए बाल हों। रह-रह कर कड़कती हुयी बिजली और सांय-सांय करती हवा गुस्से से कांंपती डायन के दांतों की चमक का वहम पैदा करती थी। गांव के बाहर किसी बडे पेड़ के कड़क कर टूटने की आवाज़ से घरों में खैर मनाते हुए लोग कांप उठे।

        दीवाने की मां झौली पसारे आयी हुयी बला को टालने की मिन्नत करते हुए खुदा से खैर और रहम की दुआ मांग रही थी। गली कूचे सुनसान हो चुके थे सब अपने-अपने घरों की खिडकियां और दरवाज़े बन्द कर जाने अन्जाने हुयी गुस्ताखियों के लिये खुदा से माफ़ी मांगते रहम की दुआ कर रहे थे।

      और तब गांव से बाहर सियारों के चिल्लाने की आवाज़े आयी। हवाओं की सांय-सांय में कोर्इ और तो इसे सुन सका या नहीं मगर उस मस्ताने की भाभी ने इसे सुना और उसके कलेजे की मासूम धक-धक किसी लुहार की धौंकनी की तरह धांय-धांय करने लगी। कमान से छूटे तीर की तरह वो दौडी और उसके कमरे में आयी और देखा.... वो दीवाना दुनियां के वाक़यों से बेगाना होकर खुली हुयी खिडकी के उस पार झांक रहा था। उसकी भाभी ने झट से खिड़की बन्द की और उसे पलंग पे लेट जाने को कहा और फिर उसका सर दबाने लगी। थोडी देर बाद शिकायत और शरारत भरी हिदायतें देकर वो वापस अपने खाविंद की खि़दमत में चली गयी।
      हवा और बिजली की चीखों के साथ बादल के दामन से निचुडकर कोर्इ बूंद ज़मीन की धधकती हुर्इ छाती पर गिरकर अपना वज़ूद मिटा लेती लेकिन ज़मीन जैसे इन्सानी जिस्मों की भूखी थी, करोडों मासूम बूंदों की क़ुर्बानी के बाद भी उसकी प्यास भूख नहीं मिट सकी थी।

      लोगों के कलेजे तो बादलों के कड़कने और बिजलियों के चमकने से धड़क उठते थे। लेकिन उन दोनों के दिल खुशी से झूम उठते और वक़्त की सुस्त रफ़तारी पर तेज-तेज आहें भरते। दुनियादारी की तमाम दीवारें इनके रास्ते से हट चुकी थी और इस रात के सियाह समन्दर के पार रोशनी के सैलाब इनकी खैरमक़दम के मुन्तजि़र थे। लेकिन उस रात भी इन आशिकों को मिले बिना रहना गवारा नहीं था। दर हक़ीक़त अपनी सोच में वो वक़्त से आगे चल रहे थे और वक़्त उनसे कोसों दूर पीछे रह गया था।

     और जब वक़्त अपनी ही रफ़तार से चलता हुआ आया, किसी बहाने से वो कनीज़, नवाबजादी को अकेला छोडकर बाहर आयी। अपने कमरे में जाकर एक तस्वीर के पीछे हाथ बढाया। तस्वीर की ओट से जब हाथ बाहर आया तो बिजली की कडक और बादलों के जोरदार कडकने के साथ दूर कहीं सियारों ने हू-हू चिल्लाना शुरू किया। बदलियों के मोटे-मोटे आंसू तड़ तडा तड-तड-तड-तड उसके पावों में गिरकर अपना कलेजा फाड-फाड कर बिखर गये। खिडकियों के पल्ले फड फडा फड-फड-फड-फड करते हुए अपना अपना सर और छातियां पीटने लगे। बदलियों के आंसूओं को समेटे उन पर लगे पर्दे गिर कर एक बार फिर उसके पावों से लिपट गये। हवाएं बावली होकर उसे धकियाने और धिक्कारने लगी.... चिराग़ तो वो पहले ही बुझा चुकी थीं।

      तब धीरे-धीरे बेरहमी से बादलों के उन बिखरे हुए आंसूओं को चीथती हुर्इ जाकर उसने पहले तो खिड़की को चुप किया और नया चिराग़ जलाया। उसकी ख़्ाामोश निगाहें हाथ में चमक रही शीशी पर गयी जिसे बडे इतिमनान से उसने अपने तकिये के नीचे रख दिया। अब उसके कदम एक ताक की तरफ़ बढे जिसके पर्दे को हटाकर उसने कपडे से ढकी कोर्इ चीज़ निकाली और फिर अपने पलंग पर जा बैठी। उस चीज़ को पलंग पर रख दिया और धीरे-धीरे कपडे को हटाना शुरू किया तो एक रक़ेबी में रखी हुर्इ मिठार्इ की खुश्बू सारे कमरे में फैल गयी। थोडी देर वो उसे देखती रही। उसकी आंखों से उसके जज़्बातों का अन्दाज़ा नहीं लगता था। बगै़र उस रक़ेबी से नज़र हटाये उसने अपने तकिये को हाथ से एक तरफ हटाया। एक बार फिर बादलों की चीख के साथ उसके आंसूओं से पास के दरिया में बाढ़ आ गयी और लोग अपने-अपने खुदा से खैरियत की दुआ करने लगे। खिड़की के शीशों का कलेजा छेदकर बिजली की चमक उस शीशी पर लाल हर्फों में लिखे उस नाम को पढ़ गयी और बादल बहुत देर तक ज़हर-ज़हर चिल्लाकर दीन दुनियां को सुनाने की नाकाम कोशीश करते रहे।
फिर आहिस्ता-आहिस्ता उस पत्थरदिल ने उस शीशी का ढक्कन हटाया और उस शीशी को उण्डेलकर दो-दो बूंद टपकाती हुर्इ रके़बी में पडी मिठार्इ पर ड़ाल दी। जिस वक़्त वो ऐसा कर रही थी, दीवार से लगी एक तस्वीर रोशनदान से आती हवा की थप्पड़ खाकर उसके सर पे गिरी। गोया कि तस्वीर का चुपचाप ये सब देखना उसे बर्दाश्त न हुआ हो और उसके थप्पड से तस्वीर ने भी अपना फ़र्ज़ निभाया। लहू की एक धार उसके गालों से चलती हुयी रक़ेबी में जा गिरी। लेकिन उसे तस्वीर से सर फूटने के बाद भी जैसे उसे कुछ नहीं हुआ हो.... उसकी आंखों में कोर्इ हरकत और चेहरे पर कोर्इ शिकन नहीं उभरी.... वो अपना काम करती रही। शीशी का सर उसके उसके इरादों के आगे शर्म से झुकता चला गया और जब शीशी के बदन की सारी ताक़त चुक गयी तो फ़र्श पे गिरकर उसने अपने टुकडे-टुकडे कर लिये। उन टुकडो पर चलते हुए उस कनीज़ के पांवों का कलेजा बार-बार फटा..... उन बेजान टुकडों ने बार-बार कोशीश की उन कदमों की रफ़तार में खम लाने की... लेकिन वक़्त की तरह उन कदमों की रफ़तार जारी रही। टूटी हुर्इ तस्वीर के शीशे भी बेनूर से पडे रहे। बेचारगी के अहसास से इधर उधर मुंह निकाले हुए बेतरतीब शीशे दूर तक उसको रोकने की कोशीश करते रहे। वो तो नहीं रूकी.... अलबत्ता फ़र्श ने उसके कदमों के ख़ून के भरे निशांन ज़रूर हर कदम पर रोक लिये।

      इस तरह वो नवाबजादी के कमरे में मिठार्इ की रक़ेबी लेकर पहुंची। नवाबजादी उसका ही इन्तज़ार कर रही थी। रात की पहली घडी बीतने को थी और नवाबजादी को जाना था। सर से पांव तक खून के धारे लिये जब वो नवाबजादी के कमरे में पहुंची तो नवाबजादी ने दौडकर उसे गले लगा लिया और बिलखते हुए उसके घावों को अपने दुप्पटटे से पौंछने लगी। फिर अपना दुप्पटटा फाडकर उसके सर पर पटटी बांधी और पांव को गोद में ले चुभे हुए शीशे निकालकर सहलाने लगी। जब नवाबजादी ने उन चोटों के बारे में पूछा तो ज़ीने पर लडखडाने का बहाना बना दिया।

      कनीज़ के ज़ख़्म और दर्द का चर्चा थोडी ही देर चला और फिर वही दीवानापन... बहकी-बहकी बातें। इन बहकी बातों का दौर उस वक़्त रूका जब दो पहाडों जैसे बादल टकराकर आग के सैलाब की तरह बिजली चमकाकर चीख पडे और उस चीख में उभर रहा था एक घण्टे का दबा-दबा और मरा-मरा अलाप, जो पहली घडी बीतने का डरा-डरा और सहमा-सहमा ऐलान था।


     ना मालूम नवाबजादी ने बादलों की वो चीख सुनी या नहीं..... बिजलियों की वो चमक देखी या नहीं...। लेकिन घडियाल की आवाज़ ने उसकी नज़रों के सामने वो मंज़र ला खडा किया गोया उसका महबूब उसे आवाज़ पर आवाज़ दिये जा रहा हो। वो एकदम उठ खडी हुयी.... उसके साथ ही उठी वो कनीज़। जितनी बेकरारी नवाबजादी के उठने में थी उतना ही इतिमनान था उस कनीज़ के उठने में। बहुत कम वक़्त में उन दोनों सहेलियो ने हालात का जायज़ा ले लिया और सेहन छोडकर दहलीज़ उलांघ गयी।
(क्रमशः)

लेखक - हुकम सिंह जी 

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