उनकी दास्तान (6)

दोनों बारिश में भीग चुकी थीं। हवाएं उनके दुपट्टे उडाये चली जा रही थीं और उनके गेसुओं से पानी की बून्दे टपक-टपक कर उनकी कदमबोसी की कोशिश कर रही थी। कनीज़ ने वो रक़ेबी नवाबजादी को अपनी तरफ़ से उस सरताज़ के लिये उनकी कामयाबी की सौगात कहकर दे दी थी और वो मज़बूर-ओ-बेजान रस्सा नवाब की हवेली के पीछे झूल रहा था। जैसे ही उस कनीज़ ने अपने बन्धे हुए बालों के पेंच-ओ-ख़म खोले... गोया जलती हुर्इ आग में किसी ने रूर्इ का गोला फेंका हो और वो ठण्डी होती आग फिर से भभक उठी हो। ऐसे ही हवाएं पागल हो उठी, ज़मीन के फटने की तरह बादल गरजे, बिजलियां जैसे भाग-भाग कर अपना माथा पीटती फिरने लगी।

यही दौर फिर-फिर के चला आता था लेकिन नवाबजादी अपनी सहेली से गले लिपट कर इस तरह आंसू ढलका रही थी जैसे आने वाले कल की बजाये आज ही वो उससे जुदा हो रही हो। वो दासी पत्थर के किसी बुत की तरह खडी थी। उसके उडते हुए काले लम्बे बाल हजारों सापों की तरह बल खाते नज़र आते थे जैसे किसी को डसने के लिये जीभ लपलपा रहे हों।

गले मिलने का दौर भी ख़त्म हुआ तो नवाबजादी थोडी देर बाद एक हाथ में रक़ेबी और दिलरूबा लिये दूसरे हाथ से रस्से को पकडे उतरने की कोशीश कर रही थी। उसकी नाज़ुक़ अकेली बांह से उसका अपना बोझ नहीं सम्भलता था। दांतों में दबाकर और हाथ से धीरे-धीरे फिसलकर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे आ रही थी। वो अभी दो मंजि़ल नीचे उतर सकी थी कि रस्से में थोडा उठाव आया और फिर पहले जैसा हो गया। उसने सोचा उसकी सहेली ने अपना सर सम्हाला होेगा.... और वो फिर नीचे उतरने लगी। थोडी देर बाद वो नीचे उतर गयी... हाथ में छालों से ख़ून बहने का उसे अहसास तक नहीं हुआ।

गलियों में पानी घुटने से कुछ ही नीचे था। सारा गांव पानी की दुनिया में बसा महसूस होता था। बहते हुए पानी का शोर उसके चलने से हुयी छप-छप को पी जाता था और बरसात की बून्दों की टप-टप में उसकी पायल की छन-छन डूब कर अपनी आवाज़ खो देती थी। ऐसे में वो अपने माशूक़ के दीदार के शौक़ में चेहरे पे नब़ाब डाले एक रूह की तरह चली जा रही थी।

       दरिया किनारे पहुंचकर उसने उस जगह को वीरान पाया जहां उसकी आंखो का सरूर उसके होसलों से चलने वाली अपनी टूटी सी कश्ती को लाकर बांध दिया करता था। वो दरख़्त आज सहमा-सहमा और उदास-उदास सा खडा था जहां एक नाज़ुक बदन कश्ती रोज आकर घंण्टों उसके दामन से बन्धी रहकर शरमार्इ सी लहरों पर कांपती रहती थी कि दरख़्त कहीं अपनी शाखों के हाथ बढाकर उसे छू न ले। दरिया पर नज़र गयी तो दूर तक उछलती लहरें मानों कह रही थी कि आज वो उनकी मुहब्बत को आजमायेगी।

इन्तज़ार की घडियां काटे नहीं कट रही थी लेकिन उसे अपनी मुहब्बत पे ऐतबार था। अपने दुप्पटटे की तरह तर-बतर ज़मीन पर आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए उस दरख़्त के पास पहुंची और सदियों से किसी का इन्तज़ार करते एक पत्थर पर बैठकर उसे निहाल कर दिया। बेकरारी के आलम में ना मालूम कब उसकी अगुलियों ने दिलरूबा के तारों से खेलना शुरू कर दिया। दिलरूबा के साथ दिल के सहन से उसका दर्द अल्फाज़ों की सीढी चढता हुआ जुबान की छत पर आकर होठों की महराब से कूद-कूद रहा था। आज उसकी आंखों में आंसू थे जैसे बरसों सीप की क़ैद में रहने वाले मोती आज अपनी आज़ादी की ख़ुशी में फूल-फूल कर मोटे हो गये हों। उसका दर्द गीत में ढलकर आवाज़ के पंख लगा लहरों के उस पार जाने की कोशीश कर रहा था लेकिन लहरें वक़्त की अनमोल जायदाद और धरोहर की तरह उसे बीच में निगले जा रही थी। ये शहजादी के उस नग़मे का जादू था या कुछ और कि बारिश हल्की-हल्की फुहारों में बदल गयी थी और उस मौसिकी को नया अन्दाज़ कु़दरत ने दिया था।

उधर उस ग़रीब बुढिया के झौंपडे का चिराग़ बारिश और हवा के थपेडों से लडता हुआ अपनी ही जि़न्दगी से जूझ रहा था। ख़्याल उसे कभी इस तरफ ले जा रहे थे तो कभी उस तरफ।।। ख़्यालों के झूले में झूलते-झूलते घडियाल की आवाज़ जैसे उस शाख के टूटने की आवाज़ थी जिस पर वो अपने खयालों के झूले की पेंग भर रहा था। ख़्वाब उसे ज़्यादा देर तक बहलाये न रख सके और वो अपनी ख़्वाबगाह से निकल कर नंगे पैर चल पडा गलियों में बह रहे पानी पर छप-छप लात मारता हुआ।

किनारे से अपनी कशित को खोला और पानी के सीने पर मैदान-ए-जंग में तलवार की तरह पतवार चलाने लगा। दयि भी आज तेवर दिखा रहा था तो लहरें भी हवाओं के साथ मिलकर उडने वाली नागिनें बनी हुर्इ थी। लगता था जैसे ये लहरें उस राजकुमार को अपने उफानों की गोद में छिपा लेना चाहती थी। उसने इन लहरों से बचने के लिये पतवार तो बहुत तेज चलायी मगर तेज धारों ने कशित को टुकडे-टुकडे कर दिया। कशित टूटी थी मगर उसका हौसला नहीं टूटा था। टूटी हुयी कशित को तो उन नागिन जैसी लहरों ने उछल-उछल कर चबा डाला लेकिन ये जांबाज उन जबडों को अपने हाथों के वार से तोडता हुआ अपनी मंजि़ल की तरफ बढ़ने लगा।
         फिसलते-फिसलते अंगुलियां आहिस्ता-आहिस्ता थमने लगी तो दिलरूबा की सांसे भी मद्धिम होने लगी और अपने महबूब को आता ना देखकर उस मलिका-ए-मोसिकी की आवाज़ सिसकियाें में बदलने लगी। नज़रे उस सिम्त एकटक लगी थी मगर दरिया के सीने पर उफनती लहरों के सिवा उसे कुछ नज़र नहीं आया तो उसने उस पार जाने की सोची और एक इरादा लेकर वो चल पडी। उसकी नज़रें किसी कश्ती की हरकत को तलाश रही थी इसलिये वो नहीं देख सकी कि घबरार्इ सी भागती दरिया की लहरों में से कुछ लहरें छपाछप-छपाछप चिल्लाती हुर्इ उसके महबूब का पैग़ाम और उसे सब्र रखने की हिदायत देती किनारों की तरफ आ रही है।

ना तो उसे तैरना आता था और ना ही उसमेें इतनी जान थी कि वो उस उफनते दरिया को तैर कर पार कर सके। बाप के ख़लूस और भार्इ की मुहब्बत ने उसमें सिफऱ् नाज़-ओ-अदा और शर्म-ओ-हया तो भर दी थी लेकिन र्इश्क की हवाओं में ली हुर्इ चन्द सांसों ने उसमें आरज़ूओं की आंधिया और होसलों का तूफान ला दिया था। र्इश्क के ऐसे ही रंग में रंगी वो अपने महबूब से मिलने की ख़्वाहिश में उन लहरों से लडने के वास्ते कूद पडी। ऐसा लगा दरिया उस हसीन को अपने आगोश में लेने के खयाल से ख़ुशी और ज़नून में गजभर उछल पडा मगर अफसोस.... दरिया उसका दामन तक नहीं छू सका। हां कुछ लहरें अपनी किस्मत की बुलन्दी पर ज़रूर मग़रूर हुर्इ कि उस नाज़नीन के कदमों को चूम कर ऐसे भागीं जैसे उन्हें कोर्इ अनमोल चीज़ मिली हो और उसके छिन जाने का डर हो।

कितनी अजीब थी उन दोनों की ये मुलाकात!!! उस दरिया के मुक़ददर में ये नहीं था कि वो उस नाज़नीन को अपने आगोश में ले सके वरना किस्मत उसके साथ ऐसा मज़ाक नहीं करती कि कोर्इ हसीन उसके पहलू में आ रही हो और उसका आशिक आकर उसे अपनी बाहों में ले ले। अपनी किस्मत पे लहरों के साथ सर धुनता हुआ दरिया बहता रहा।
     उन दोनों की ये मुलाकात ख़ुदार्इ करिश्में की उन हदों तक जादूर्इ थी जहां उसकी तजर्ुबानी नामुमकिन है। जैसे ही वो नवाबजादी दरिया में कूदने को हुर्इ वो ग़रीब अपने बाजुओं की पतवार से जिस्म की नांव खेता हुआ वहां आ पहुंचा था और जैसे अपनी झौली में खुदा का बख़्शा हुआ कोर्इ फूल झेला हो इस क़दर उस हुस्नजादी को अपनी गोद में झेल लिया। उस वक़्त चान्द भी शायद इस नज़ारे का दीदार करने के लिये अपने आसमानी महल से बादलों के पर्दे हटाकर अपनी हजारों बीवियों के साथ उस मंज़र को देखने लगा। दरिया किनारे के दरख़्तों में से ना मालूम किस शाख को ख़्याल आया कि कहीं चान्द-तारों की नज़र ना लग जाये सो हवा के इशारे और सहारे से उस हसीना के भीगे दुप्पटटे को उसके सर पर ढंक दिया। भीगा-भीगा दुपट्टा भीगा-भीगा दामन और भीगा-भीगा समां। दोनों के भीगे हुए दामन से गिरने वाले मोतियों को वो दरिया बडी बेसब्री से अपनी झौली में भरकर भाग रहा था। मगर अफ़सोस एक बार फिर दरिया की किस्मत पर कि उन दीवाने आशिक ने दरियों को ये दौलत ज़्यादा देर तक बटोरने नहीं दी। वो उस हसीन नाजनीन को गोद में उठाये किनारों की तरफ चल दिया। तमाम आगाज़-ओ-अन्जाम से वाकि़फ़ कु़दरत की तमाम बेबाक शय भी उस घडी जज़्बाती होकर आंखे नम कर रही थी।

किनारे पहुंचकर उसने आहिस्ता-आहिस्ता उस नाजुक बदन को ज़मीन पर उतार और फिर वो दोनों एक दूसरे का हाथ थामे हुए जानी पहचानी डगर पे चल दिये। ज़मीन ने उनके एक-एक कदम का निशांन अपने सीने पर अहसान की तरह लिया और सारी ख़ुदाई के आंसू भी उन निशानों को मिटा ना सके। इसी दर्द की सिसकियां हवा अपनी सांय-सांय में लिये घूम रही थी जैसे कोर्इ मां भूख से बिलखते अपने बच्चे के लिये बन्द खिडकी और दरवाजों पर दस्तक देती फिर रही हो। कभी-कभी कोर्इ झौंका उन दोनों को इस तरह छूकर जाता जैसे वो मां बीच में आकर उस बच्चे को ख़ुद की सूखी छाती से चिपटा कर उसे अपने पास होने का अहसास करवा रही हो। लेकिन वो दोनोें यूं बढे जा रहे थे जैसे वो बच्चा मां की मजबूर और नाकाम कोशीशों से मायूस होकर अपनी ही किसी उम्मीद की ओर जा रहा हो।
         उस वक़्त वो अपनी कि़स्मत और अपने वज़ूद को तौल रही थी। जि़न्दगी में हर एक ने उसे छोड दिया था। मां ने अपना दूध भी नहीं पिलाया तो बाप ने बचपन में ही बेआसरा कर दिया। नवाब ने उसे सहारा दिया तो एक ख़ुदा पर उसे यक़ीन आया था लेकिन आज उस ख़ुदा ने भी उसके विश्वास का गला घोंट दिया था। उसके मरने की आरज़ू भी पूरी नहीं हो सकी बल्कि जि़न्दगी भी उससे नाराज़ हो गयी।
         जब वो हुस्नपरी ईश्क़ के उस शहजादे से मिलने की खातिर पिछवाडे में उतर रही थी तो इसने अपने गेसुओं को अपने गले की सुराही से लपेट लिया। वो गेसू जिन्हें इसने बडे नाज़ से पाला था आज उसके गले में हजारों नागों की तरह उसका खून पीने के वास्ते लिपटे हुए थे। जब तक इन नागों को इसने दूध पिलाया तब तक उसके दुपट्टे की ओट में वे नाग अपना ज़हर बढाते रहे और जब इसने उन्हें दूध देना बन्द कर दिया तो वे उसीका खून पीने के वास्ते लपक पडे। उसके गले का सारा खून आंखों में आ गया। वो लहू अपनी जान बचाने के लिये आंख, नाक, कान और मुंह के दरवाज़े-खिडकियों के रास्ते भागकर छूपने की जगह तलाशने लगा। लेकिन जिसे अपनी जगह पनाह नहीं मिली वो दूसरे के दर पे कब तक आसरा पायेगा आखिरकार उन नागिन जैसी भयानक लटों की तरफ लहू खु़द अपनी जान निसार करने चला और उस लहू में वो नागिनें झूम-झूमकर नहा उठी। भीगे हुए दुपट्टे का रंग और भी सुर्ख हो गया तो बारिश के पानी से प्यासी छत का आंगन भी छोटे-छोटे गड्ढों की ओक में उस लहू को पीने लगा।
          आखिर फिर उसमें लहू था ही कितना जु़ल्फ़ बनी उन नागिनों ने वो खून पिया भी वे उसमें नहायी भी और उस बदबख़्त की छटपटाहत से खुश होकर इधर-उधर भाग-भाग कर खेलती हुयी बिखेरा भी। नाक-मुंह के नाले बन्द हो गये... आंख के हीरों ने लहू के नाले को रोकना चाहा तो मानों किसी ने उन्हें पकड के खींचकर बाहर निकाल दिया हो। जीभ इस कदर लाल होकर बाहर आ गयी जैसे किसी ने शीशे के ख़ंजर से काटकर लाल रंग के प्याले में लटकाकर रख दी हो। जिस दम उसका ये हाल हुआ था, पावों से पायल ने अपना रिश्ता तोडकर उसकी एडियों के जिग़र का लहू अपने दामन से लगाकर दूर हो गयी थी। बिना पानी के मछली की तरह तडपने से उसके कपडों और जिस्म को छत के पथरीले आंगन ने प्याज की तरह छील दिया था और अब वो एक घायल नागिन की तरह पडी थी।
          हां....... वो नागिन ही तो थी। जिसने नाकाम मुहब्बत का इन्तकाम लिया था और जिससे उसने इन्तक़ाम लिया उसके बग़ैर वो ख़ुद भी जिन्दा नहीं रहना चाहती थी। अगर वो जिन्दा रहती भी तो जमाना उसे अपने कदमों तले रौन्द डालता। इसलिये वो अपने इन्तक़ाम की आग में ख़ुद भी जल मरने के लिये कूद गयी थी। मगर अफसोस उसकी किस्मत पर कि मौत ने भी उसे अपना दामन तक नहीं छूने दिया। अलबत्ता इस कोशीश में वो बदनसीब सिर्फ़ बुरी तरह झुलस कर रह गयी। अगर नवाबजादी अपने महबूब से मिलने की आरज़ू को दो घडी का भी ख़म दे पाती तो अपने ही गेसुओं के फन्दे में इस नागिन का दम घुट चुका होता। लेकिन इसकी किस्मत में तो जि़न्दगीभर की तड़प बदी थी। इसलिये ये दिल की घायल आज जिस्मानी तौर पर भी घायल हो गयी थी और मौत के दर से भी ये खाली हाथ लौटकर चारों खाने चित इस तरह पडी थी मानों अपना सबकुछ लुटाकर फटी-फटी आंखों से आसमान के इस छोर से उस छोर तक अपनी किस्मत का एक सितारा ढूंढते-ढूंढते जैसे खुले-खुले हाथ दिखाकर कह रही हो कि देखो हमने सबकुछ लुटा दिया।

         उधर वो मां.... जिसके जिग़र को वो टुकडा था, ख़्वाब में अपने बेटे के सिर पर सेहरा बन्धा देखकर बलाये ले रही थी। उसकी बूढी आंखों में अपने बेटे को देखते हुए थकने का नाम नहीं था। उसके दिल में हसरत और अरमानों के गुंचे चटक रहे थे और नज़रों में तमन्नाओं के चिराग़ रोशन हो रहे थे। आज वो अपने बेटे की सूरत को जमाने की नज़र से बचाने के लिये अपनी आंखों में छुपा लेना चाहती थी। 
         मगर ये सब एक ख़्वाब था। अचानक बादलों की एक दर्द भरी चीख के साथ उसकी आंख खुल गयी और जैसे ही अपने लाल के बिस्तर को खाली देखा तो उसके दिल पे बिजली सी गिर पडी। उसके होष फ़ाख़्ता हो गये। एक अन्जाने डर से उसका रोम-रोम कांप उठा। लाख लगाम देने के बाद भी उसकी जबान बिलबिला उठी। जिसे सुनकर उसका बडा बेटा और बहू दौडकर आये। जो कुछ नज़ारा था उनके सामने था। दोनों ने उस सूखे दरख़्त की तरह हरहराकर गिरते हुए बूढे जिस्म को सम्हाला लेकिन बाहर किसी बडे पेड की शाख़ के कडकडाकर टूटने की आवाज़ के साथ कुत्तों की हू-हू सुनकर उनका जिस्म भी सूखे पत्ते की तरह कांपा, एक-एक रोम खडा हो गया और दिल की धडकन जंग के नक्कारों पर पडने वाली चोट की तरह धडाक-धडाक करने लगी। आंखों में खौफ़ चेहरे पर सवाल और होठों पे परवर दिगार से दुअ़ा.... यही तस्वीर थी उस वक़्त उनकी।
             उधर नवाब का भी यही हाल था। बरसों सें से जिस घडी का वो बेकरारी से इन्तज़ार कर रहा था, वो घडी उसके दरवाज़े पे दस्तक लगा चुकी थी। आरज़ू, तमन्ना और ख़्वाहियषों से लबरेज अपनी चहेती दस्तक के ख़याली शोर में अपनी ख़्वाबगाह के भारी दरवाजों पर भडभडाकर आने वाली तेज थपथपाहटों को नवाब नहीं सुन सका। अपनी बेटी की शादी का अरमान उसकी जि़न्दगी का सबसे बडा अरमान था और वो आने वाले कल के दिन पूरा होने जा रहा था। मां के साये से महरूम लेकिन भरपूर लाड-प्यार से इठलाईयों में खिलता हुआ बचपन अचानक मुहब्बत और हया में लिपटी हुई बेटी की जवानी एकबार तो नवाब के सामने खानदान की आबरू के पहाड की तरह खडी हो गयी थी। लेकिन ये पहाड अपनी औलाद को खुष देखने की ख़्वाहिष, उसकी बडी सोच और उन दोनों की मासूम पाक मुहब्बत के सामने बहुत छोटा था। वो दौर तो कब का गुजर चुका था जब अपनी हस्ती के मुकाबिल लोगों में ही रिष्ते करने का रिवाज़ था और सिर्फ़ नवाबों को ही अपनी मर्जी की मलिका चुनने का हक था। आज उसकी बेटी ने उसके वकार की बुलन्दी को और उंचा उठा दिया था। जहां से वो देख रहा था कि अब तक जो लोग उसकी हैसियत से डरकर उसका हुक्म बजा लाते थे आज वो हुक्म फमाबर्दारी दिल से की गयी इज्जत की एवज में की जाने वाली खि़दमत बन गयी है।
           उसके ख़्वाबों में वो अपनी बेटी को दुल्हन बनी देख रहा था। उसकी नज़रों में क़यामत के दिन की तरह के ये आसमानी नज़ारे सतरंगी आतिषबाजी, कानों में शहनाई की तान और नगाडों की ताल बने हुए थे। दरिया की उमडती हुई लहरों की उंचाईया उसके दिल की खुषियों की बुलन्दियों के सामने शर्मिन्दा थी। सुर्ख जोडे में वो लाल मोरनी सी इठलाती फिर रही थी। बादल की लकीरों जैसे काजल की डोरियों ने आंखो में सिमट आये गहरे नीले आसमान को बांध रखा था। गुंलाबी होठों के पीछे चमकते सफेद दांत कंवल की कलियों के बीच मोतियों की कतार और उसे चुग जाने के लिये नाक नथ की लगाम से काबू किये हुए किसी हंसिनी की तरह नज़र आती थी। शफ़ाक सफ़ेद चेहरे पर काली आंखों के बीच माथे पे लगी सुर्ख बिन्दिया जैसे मजनूं के आगोष में सिकुडती हुई लैला को देखकर सूरज शर्म से लाल हो गया हो। ऐसे में उसके गालों और माथे को छेडती हुयी कुछ शरारती जुल्फ़़े उससे जी भरकर प्यार कर रही थी।
        ऐसे ही ख़्वाबों में खोया हुआ नवाब अपने आरामगाह में सोया हुआ था कि यकायक उसकी आंखे बादलों की एक दर्दनाक चीख के साथ खुल गयी। अपने दिल के इर्द-गिर्द उसे ख़ौफ़नाक साये डोलते नज़र आये और कलेजा एकबारगी धक रह गया जब कुत्तों ने हू-हू कर रोना शुरू किया। रेल के इन्जन की तरह धक....धक धडकते दिल से खुदा को रूबरू जानकर झौली पसारे हाथ उठाये दुआ और मिन्नते करने लगा। रिवाज़ और अदब के मुताबिक बग़ैर इत्तला और इजाज़त के जनानखाने में जा नहीं सकता था। अपने नीचे के अहाते से ही देखा। उसकी बेटी के सहन के सभी चिराग़ पूरी तरह रोषन थे जिन्हे देखकर उसने ख़ुद को दिलासा दिया कि उसकी बेटी की आंखों में ख़ुषियों ने नीन्द की जगह ले ली है जिन्हें वो अपनी सहेली के साथ सहेज रही है। बहुत देर तक वो अपने ही ख़यालों में खोया वहां खडा रहा और फिर उस चैखट की तरफ खुदाहाफि़ज़ के अन्दाज़ में दुअ़ाओं वाले हाथ हिलाता हुआ अपनी आरामगाह में आ गया। 
(क्रमशः)

लेखक - हुकम सिंह जी 


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