उनकी दास्तान (7)


इधर ये दोनों जि़न्दगी के हमसफ़र दरिया के किनारों को बिलखता छोडकर आसमान के आंसुओं से भीगी हुई ज़मीन के दामन पर एक दूसरे का हाथ अपने हाथों में थामे हुए अपने कदमों के निशानों से आगे-आगे चलकर मौत की मंजि़ल तय करते हुए अपने ही मज़ारों की तरफ़ बढ रहे थे। हवा बार-बार इन्हें पीछे धकेल रही थी, मगर इश्क़ की ताकत के आगे उसकी एक नहीं चली। सिवाय इसके कि एक शरारती बच्चे की तरह उस हुस्न की मलिका के दुपट्टे को खींच-खींच कर सर और शानों से गिरा सके।

जमाने को तो ये बहुत पीछे छोड आये थे और खुदाई ख़ुद इनके बुलन्द हौसलों के आगे थर्रा गयी थी। फिर भी रह-रह कर हिम्मत कर के इन्हें रोकने की कोशिश कर रही थी भले ही वो इसमें कामयाब नहीं हो पा रही थी। ऐसे में जब वे आख़िरी बार उस राह से गुज़र रहे थे तो कांटे कैसे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करने का इल्जाम अपने सर लेते जिन कांटों पर उनके कदम पडे वो उनके पांव को चूमकर अपनी बदनसीबी पर खून के आंसू रोता हुआ उनके पांवों में ही दम तोड देता।

इस तरह चलते-चलते वे वहां पहुंचकर रूके जहां सबको जाना है और जो आखि़री मुकाम है। जहां अपने पांवों से चलकर आने वाले तो लौट जाते हैं और अपने पांवों से नहीं चलकर आने वाला वापस नहीं लौटता। एक दिन उनकी किस्मत की कष्ति उन्हें यहां ले आयी थी फिर इनकी मुहब्बत इन्हें यहां लाती रही और आज ये फ़ैसला कर पाना मुश्किल था कि इन्हें कौन यहां लाया है |
इस तरह वो दोनों साये कब्रिस्तान की सरहद में आ चुके थे और अपनी जगह के करीब पहुँच चुके थे। एक आख़री कोशिश उनकी जि़न्दगी के लिये उसी कब्रिस्तान की ज़मीन ने की जिसके उसूलों में कहीं नहीं लिखा कि कोई उसके पहलू में आके वापस चला जाये। उस कब्रिस्तान की मिट्टी थोडी चिकनी थी और पानी से यहां वहां फिसलन भी हो गयी थी। हालांकि वो दोनों एक दूसरे को थामे सहारा देते हुए अपनी जगह के करीब जा रहे थे। सिर्फ़ दो ही कदमों का फासला था। वो नाजुक बदन अपनी कामयाबी की खुशी में उडने सी लगी थी और यही मौका मिला था उस ज़मीन को। ज़मीन पर उसके पांव ने ख़ता की और वो फिसलने लगी जिससे उसके हाथ की रकेबी गिरने सी लगी। मगर..... ज़मीन अपने इरादों में कामयाब नहीं हो सकी। मजबूत जिग़र और इरादों से भरपूर उस नौजवान ने एक बार फिर अपनी बाहों में सम्हाल लिया। सुर्ख दुपट्टा झुककर ज़मीन को प्यार करने लगा जैसे उसकी नाकामी पर उसे चिढा रहा हो। रकेबी में रखी मिठाई का एक टुकडा वहां गिर गया। अफसोस की ज़मीन उसे खाकर मर न सकी।

वो नाज़नींन अपने शौहर की बाहों में झूलकर ज़माने को तो भूल ही चुकी थी.... ख़ुद को भी याद नहीं रख सकी। अपने चाँद की सूरत को आंखों के बादल में बन्द करके ना मालूम कहां खो गयी।

उस वक़्त वो बेहद हसीन और मासूम लग रही थी। चाँद-तारों की किस्मत में तो उस मंज़र का दीदार नहीं था, मगर जिस पेड के नीचे वो दोनों थे वो दोनों थे वो इसको बर्दाश्त नहीं कर सका और टप-टप आंसू टपकाने लगा। सिसकी की तरह एक सर्द हवा का झौंका आया जो उस दरख़्त के दिल में आग लगा गया जिसने आसमान से उधार लिये सहेजकर रखे हुए आंसूओं को अपने पत्तों की पलकों से बहा दिया। जैसे वो उन दोनों को अपने आंसूओं से नहला देना चाहता हो।
तब उस हसीनों के देवता ने उस हसीना को अपनी बाहों में लेकर इतनी आहिस्ता-आहिस्ता वो दो कदम का फ़ासला तय किया जैसे उसे डर हो कि कहीं कलियों के खिलने की आहट सुनकर जागने वाली उस गुलबदन की आंख उसके कदमों की आवाज़ से खुल ना जाये।

इस तरह क़ब्र पर पहुंचकर वो झुका था मानो सफ़ेद चादर ओढकर सोई हुई रूह को जगाना चाहता हो। लेकिन हकीकत में वो उस नाज़नींन को उस पत्थर पे लिटा रहा था। जिस बात का डर था वही हुआ....। उसकी बाहों में वो नाज़नीं जन्नत का सकून पा रही थी लेकिन उसके ख़्वाब को एक झटके से उस पत्थर की सख़्त परत ने पानी की लहरों सा तोड दिया। वो फ़रिश्ता तो अभी झुक के उठा भी नहीं था और वो घुटनों को समेटकर बैठ भी गयी थी। बहुत आहिस्ता से फिर वो भी उसके करीब बैठ गया। अन्धेरा था.... दूर-दूर तक कहीं किसी रोशनी के निशान नहीं थे। मगर उनकी आंखों में कामयाबी की चमक थी और एक दूसरे को बुत की तरह देख रहे थे।
ना मालूम वो कब तक यूंही एक दूसरे को देखते रहते कि पास के दरख़्त की पलकों से गिरती हुयी कोई बून्द दिलरूबा के किसी तार को चुप रहने का ताना दे गयी और उसकी धीरे से भरी गयी हामी ने नवाबजादी को कुछ याद दिला दिया। उसने अपने साथ लायी हुई उस रके़बी का कपडा हटाया। हवा का एक झौका आया और उस कपडे को ले जाकर कांटो की एक झाडी के हवाले कर दिया जिसने उसके जुर्म की सजा ये दी कि वो ग़रीब कपडा अपने नाकर्दा गुनाह की सजा पाने की जिल्लत के अहसास से फट के रह गया। लेकिन फिर भी वो अपनी बेगुनाही का यकीन उन कांटों को नही दिला सका। उसी हवा के झौंके ने मिठाई की ख़ुशबू इस तरह फिज़ा में फैला दी जैसे कोई ऐलानगर मुनादी कर रहा हो और बादलों की गडगडाहट उसके नगाडों की आवाज़ हो। हवा इस कदर सांय-सांय कर रही थी जैसे सारी रूहें उस मुनादी को सुनने अपने बिस्तर छोडकर दौडती आ रही हो और खुशी से चीख रही हो। ये धोखा होता था जैसे उस एक रकेबी भर मिठाई में कब्रिस्तान की सारी रूहें दावत मनाने आ रही हो।

और फिर आहिस्ता-आहिस्ता उस नाज़नींन का हाथ रकेबी की तफ बढा। उस वक़्त हवाएं जैसे पागल हो गयी थी.... और उसके पागलपन का शिकार हुए कुछ कमजब्त दरख़्त जो आने वाले वाक़ये को देख सकने की हिम्मत नहीं रखते थे। उन्हीं में वो बूढा दरख़्त भी था जिसकी आंखों के सामने और उसी के साये में वो मौत उन दोनों की तरफ अपने अब तक के सबसे निराले अन्दाज़ में बढ़ रही थी। वो इस कदर चरमरा कर तडपता हुआ गिरा जैसे किसी के जिगर में खंजर को आग में लाल करके मूंठ तक घुसेड दिया हो। जैसे किसी को ज़हरीली नागिन ने ढंसा हो। मगर सिर्फ़ इससे हवा का पागलपन नहीं मिट गया था। गीली ज़मीन से मिट्टी यूं उखड रही थी जैसे हवा ज़मीन की छाती पर सर पटक-पटक कर उसकी बखिया उधेड रही हो। ऐसे में आसमान शायद समझ गया था कि इस डगर पे चलने वाले मुसाफि़रों को कोई रोक नहीं सकता था। रोते-रोते अपने सूख चुके आंसूओं का एक-एक क़त़रा निचोड हताश होकर चुप होने की कोषीष में सिसकियां लेता हल्की-हल्की फुहारों से अपनी ग़मगीनी का अहसास करवा रहा था।

ऐसे ही आलम में जब उस मासूम कली का हाथ उस ख़ुशदिल गुंचे के मुंह तक गया तो बिजली की कडक से ज़मीन कांप गयी.....। बहारों के इस मौसम में कई गुलशन वीरान हो गये.....। बिना पतझड के कई पेडों से पत्ते अपना वास्ता तोड गये और एक बार फिर कई दरख़्तों ने अपना सिर ज़मीन तक हमेशा-हमेशा के लिये झुका दिया। आसमान कुछ नहीं कर सका.... ज़मीन लाचार हो गयी और क़ुदरत की मर्ज़ी के आगे वक़्त के साथ हर शै सकते में आकर चुप हो गयी। वो दीवाना मौत को गले लगाने के वास्ते बाहें फैला चुका था। मिठाई का टुकडा उसके हलक से नीचेउतर चुका था। अब आसमां का रोना चीखना बेकार था.... उसकी हर कोशिश इश्क़ की बग़ावत के सामने लाचार हो चुकी थी।

अपने खूबसूरत हमसफ़र के हाथों ज़हर खाकर वो अपनी जि़न्दगी को कामयाब समझ रहा था। जितना खूबसूरत उसका हमसफ़र था उतना ही खूबसूरत उसकी मौत का सफ़र था। शर्म हया खुशी
मुहब्बत की कामयाबी का दर्प और न जाने क्या-क्या जज़्बात उस माशूक की आंखों में एकसाथ उभर आये थे। उन आंखों में अपना अक्स और मुस्तकबिल तलाशते हुए दोनों हाथों से उसका चेहरा थामे बहुत देर तक देखता रहा। कु़दरत ने उस पर कितनी इनायत की थी जो अपने खजाने का बेहद हसीन और अनमोल तोहफा उसे अता फरमाया था। शर्म से झुकी-झुकी अधखुली आंखे एक छलकते जाम की मानिन्द भरी-भरी लग रही थी। मिठाई के उस टुकडे से ज़्यादा रस उन होठों में था और बालों में लगा गुलाब गालों की गुलाबी के आगे फ़ीका लग रहा था। यूं ही उसकी सूरत ताकते-ताकते उसने भी मिठाई का एक टुकडा अपने हाथों से उसे खिलाया। समां ख़ामोश रहकर अब उनके चैन से मरने की निगहबानी के सिवा कर भी क्या सकता था?

इस तरह धीरे-धीरे मिठाई की पूरी रक़ेबी खाली होने के बाद दोनों ने एक दूसरे को बाहों में ले लिया और बहुत देर तक एक दूसरे के आग़ोश में खोये वे ख़्वाब की हकीक़त का ख़्वाब देखते रहे।
     वो ज़हर था.....। ऐसा ज़हर जिससे मौत बहुत आहिस्ता-आहिस्ता आती थी नींद की लोरियां गाती हुई। ऐसा ही हुआ। दीवाने की आंखों में नींद का ख़ुमार रंग भरने लगा। वो नवाबजादी की गोद में सर रखकर लेट गया और नवाबजादी दिलरूबा के तारों से हल्के-हल्के खेलने लगी। मौत का साज़ बजने लगा.... और मौत गीत गाती हुई आने लगी। ज़र्रा-ज़र्रा उस वक़्त ख़ामोश रहकर मौत की उस सुरीली आहट को सुन रहा था.... कभी बहुत दूर से तो कभी बहुत पास से।

फिर.......... शहजादी को भी नींद आना शुरू हो गयी। दिलरूबा धीरे-धीरे चुप होता चला गया और उस माशूक की आंखे अपने आशिक के चेहरे पे टिक कर पथरा गयी। दिलरूबा उस दीवाने के सीने पे रखा था जिसके तारों ने उस नाज़ुक बदन की अंगुलियों का खून पीते-पीते खुद को भी फ़नां कर लिया था।

और................. यही उनकी मौत थी।
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मुर्गों ने बांग दी। ज़माना उठने लगा और मुर्दे सोने चले। सुबह हुयी.... डरते-डरते सूरज ने मुंह से धुंध की चादर हटायी। लगता था जैसे रातभर रोने से उसकी आंखे सूज गयी हो। आज उसमें और दिनों की तरह ताब नहीं थी। हालांकि वो किसी भी वाक़ये का गवाह नहीं था लेकिन.... वो डर रहा था इस बात से कि वो ज़माने को एक ऐसे वाक़ये की ख़बर देगा कि जिससे वाकिफ़़ होने के बाद ज़माना उस पर थूकेगा। लेकिन वो हकीक़त से मुंह नहीं छिपा सकता था। कु़दरत के निजाम ने यही फ़र्ज उस पर क़र्ज़ की तरह डाला है कि रात की तमाम कारगुज़ारियों पर वो सुबह दम रोशनी डाले। उसे अपना फ़र्ज़ पूरा करना ही था।

कल तक जो मकान नहाने के बाद नये कपडे पहने हुए लग रहे थे आज किसी मईयत से लौटे उदास और गमगीन नज़र आते थे। साफ नीले आसमान में सफेद बादल मसलकर फटे और कुचले हुए कफ़न के टुकडों की तरह उड रहे थे।

बहुत दिन चढने के बाद तक भी जब नवाबजादी और उसकी सहेली अपने महल से बाहर नहीं निकली तो नवाब ने अपनी बहू को भेजा। बहु ने उपर आकर दोनों फ़ाख़्ताएं पिंजरे में नहीं थी। ख़ामोश दीवारों और पर्दो से क्या पूछती। वो हकला गयी... नवाब को क्या जवाब देती दौडती-दौडती अपने ख़ाविन्द के पास पहुंची। माज़रा समझने के बाद नवाब के बेटे ने हवेली की एक-एक चीज़ उलट कर रख दी। न उन दोनों का कोई सुराग़ मिला ना उनके बाहर निकलने का रास्ता। हवेली की छत और पिछवाडे की तरफ नवाब के बेटे का ध्यान नहीं गया। धडकते दिल से अपने अब्बा के सामने जुबान खोली.... नवाब इस सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सका और गश खाकर गिर गया। जल्दी ही सारे गांव में ये बात फैल गयी और नवाब की हवेली के सामने भीड लग गयी।
तभी दरिया के उस पार से उस दीवाने का भाई भागता चला आ रहा था। उसके कपडे फट चुके थे, कांटों और पत्थरों से उसके पांव बुरी तरह घायल हो चुके थे। बार-बार गिरने से उसके जिस्म पे कई घाव हो गये थे जिनसे लहू रिस रहा था। बाल बिखरे थे होंठ फट गये थे और आंखे अंगारों की तरह लाल थी।

जब लोगों को मालूम हुआ कि उधर से वो दीवाना भी ग़ायब है तो लोग हैरत में पड गये। वो सोच भी नहीं पाये कि ये क्या हो गया, तभी कब्रिस्तान का पहरेदार हांफता हुआ आया। उसकी हालत भी दीवाने के भाई की तरह ही थी और वो बेहद डरा हुआ भी था। लोगों के पास पहुँचकर वो आंधी से टूटे दरख़्त की तरह गिर पडा। उसे पानी के छींटे मारकर होश में लाया गया मगर.... उससे कुछ बोला नहीं जा रहा था। लगता था या तो उसकी जबान काट दी गयी थी या फिर वो तलवे से चिपक गयी थी। उसे लोगों ने चारों तरफ से घेर रखा था लेकिन उसकी आंखे आसमान की तरफ इस तरह उठी हुई थी मानो वहां कुछ ख़ौफ़नाक नज़र आ रहा हो। बोलने में हिचकियां ले रहा था और सारा जिस्म सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था। बमुश्किल उसके मुंह से सिर्फ़.... वो..वो.... वो दो..... वो दोनों.... वो दोनों... निकला और वो एकबार फिर बेहोश हो गया।

फिर सारा गांव कब्रिस्तान की तरफ चल पडा। उस वक़्त बच्चा बूढा जवान औरत और मर्द सभी इस तरह तेज चल रहे थे जैसे वे लोग कब्रिस्तान नहीं जंग के मैदान में जा रहे हों। किसी को कुछ होश नहीं था। जो पीछे रह गये थे वो दौडकर अपना फ़ासला तय कर रहे थे। हर किसी को पहले पहुंचने की लगी थी।

इस तरह वे उस बर्बाद कब्रिस्तान में पहुँच गये जहां कब्रें उघड गयी थी जिनमें भरा हुआ पानी धीरे-धीरे दफ़न हो रहा था। कई पेड बेकफ़न और बेमज़ार ज़मीन पर दम तोडे पडे थे। उनके साथ सैंकडों मरे हुए परिन्दे और उनके आशियाने भी तिनके-तिनके बिखरे पडे थे जो उनमें रहते थे।

इन सबको रौन्दते हुए उस भीड का हर शख़्स अकेला-अकेला चला जा रहा था। हर एक के दिल दिमाग और ज़ेहन में एक ही सवाल था कि जिसे रहम का समन्दर और परवर दिगार कहते हैं वो कितना बेरहम हो गया था जो इन्हें न सिर्फ़ प्यासा रखा बल्कि पानी में ले जाके मारा।

सबने उसे धोखा समझा..... झूठ और और आंखों का फ़रेब समझा। किसी को भी अपनी ही आंखों पे यकीन नहीं रह गया था लेकिन हकीक़त सामने थी। उसे फ़रेब नहीं कहा जा सकता था। उन दोनों पर उन्हें उनके जि़न्दा होने का वहम होता था। यहां तक कि कुछ बेताब जिग़र उनकी शख्सीयत के दीवानों ने तो पुकार कर आवाज़ भी दे दी। कब्रिस्तान की उस मौत की बस्ती में यूँ तो कोई किसी को ना तो आवाज़ देता है ना कोई जवाब। उनकी आवाज़ भी मौत के सन्नाटे में खो गयी और लौट कर नहीं आयी। नतीजा ये कि उनकी नज़रें भी उन बुतों की तरह पथरा गयी और किसी से कुछ बोलते न बना।
नवाबजादी की गोद में सर रखे वो शेरपुष्त कमाल सो रहा था मगर उसकी आंखें खुली हुयी थी। एक हाथ नवाबजादी की जुल्फ़ से उलझ रहा था और दूसरा ख़ुद के जिग़र में जैसे अपनी महबूबा की तस्वीर छुपा रहा था। होठों पे वही करोडो दीनार लुटाती हुई मुस्कान थी।

और नवाबजादी को देखकर यूं लगता था जैसे वो हमेशा दिलरूबा बजाती रहेगी और अपने दिलबर की सूरत से कभी नज़रे ही नहीं उठायेगी। जिसके पत्तों की छलनी से छनकर आने वाली चाँदनी में उनकी मुहब्बत परवान चढी थी आज ज़मीन पर गिरा होकर उनके सामने अपनी वफ़ा की गवाही तो दे रहा था लेकिन उन दोनों को सूरज की तपिश से नहीं बचा सकने की मजबूरी से शर्मिन्दा होकर उसकी पत्तियां कुम्हला रही थी। शायद इसीलिये उस माशूक की जुल्फें उस आशिक पर इस तरह छांव कर रही थी जैसे कह रही हो कि उस मुहब्बत की मलिका की वफ़ा कभी शर्मिन्दा नहीं होगी।

झुकी-झुकी गर्दन, बिखरी और बल खाती जुल्फ़ें नींद के ख़ुमार से बोझिल पलकें और दोनों के भीगे-भीगे दामन उनकी रात का हाल बयान कर रही थी। जमाना सोच रहा था कि इनकी मुहब्बत में कौन सी दीवार थी हमेंशा दिल की दुनियों में दौलत मजहब खानदान और न मालूम कैसी-कैसी दीवारें आती रही है लेकिन इनके दिलों की दुनियां में तो किसी दीवार का नाम ही नहीं था। ख्वाबों में भी तो इन्हें किसी ने बद्दुआ नहीं दी थी!!! तो फिर किस के आशियाने पर बिजली गिरी कि ये अपने ही घर से बेदर हो गये। इनकी तमन्नाओं के बसने से पहले इनकी दुनियां ही उजड गयी। मंजिल का फ़ासला एक कदम रहने पर ही ये दम तोड बैठे। ये किनारे तक आये कि कश्ती डूब गयी।
और क़ुदरत को इनकी मुहब्बत पर कितना ग़रूर था कि ना तो जमाने को इनके जनाज़े को कन्धा देने के काबिल समझा और ना ही इनकी कब्र खोदने का सबाब। हिचकियों का एक तूफान सा आ गया। एक तरफ रात भर जो जमाना सुबह के हसीन ख़्वाबों में सोता रहा था, सुबह होने पर उस नागिन सी रात और काली सुबह के स्याह धब्बों को अपने आंसुओं से धोने की कोशिश कर रहा था। दूसरी तरफ रातभर जो आसमान चीख-चीख कर और रो-रो कर जमाने को जगाने की कोशिश कर रहा था अभी सब्र किये हुए था। कुछ एक बादलों के टुकडे किसी यतीम कफ़न की तरह हवा में बेआसरा उड रहे थे।

नवाब का हाल किसी पागल जैसा हो गया था। उस मजार से सर टकरा-टकरा कर वो रहमत अल्लाह को कोस रहा था जिसने उसकी मासूम बच्ची के नसीब में ये अहवाल किया था। काश.... उस खुदा की भी एक मासूम बेटी होती और वो भी इसी तरह उसे रूला जाती तो उसे नवाब के दिल की तडप का अहसास होता। उसके भी कोई इतना नेक और खूबसूरत दामाद होता और वो अपनी जवान बेटी का सुहाग इसी तरह उजडता देखता तो उसे मालूम होता कि मुहब्बत का जज़्बा क्या होता है? क्या उसे ज़मीन पर किसी इन्सान को ख़ुश रहते देखना गवारा नहीं.....ऐसा ही था तो धरती पर ऐसे चेहरे क्यों बनाये काश..... उसका भी इन ग़मों से पाला पडे उसके दिल में भी गीले कांटे जले, उसे भी अपनी महबूबा से जुदा होने का ग़म मिले, उसे भी ऐसे मौसम में मौत आये जब जवान दिल उमंगों में भरे होते हैं। उसकी हुकुमत मिट जाये, वो ख़ुद मिटे, उसे भी कफ़न नसीब न हो और उसकी खि़लअत के निशान तक मिट जाये, दुनियां में कोई उसका नामलेवा न रहे, कोई उसे रहमत अल्लाह न कहे। दो बेगुनाह मासूमों की जान लेकर उसे क्या मिला? ये मर गये लेकिन मुहब्बत में अपना एक मुकाम बना गये। एक बाप के दिल की बद्दुआ लगे और उसका नाम उनकी दास्तान में उसी काली रात की तरह काला हो जिस रात में उसकी कु़दरत ने ये काली सियाह इबारत लिखी।
इस तरह नवाब आंखों में आंसू, सर पे धूल, कुर्ते पर माथे से बहता खून और भर्राये गले से आसमां की तरफ देखकर बोलता बडबडाता हुआ टूटी हुई शाख़ की तरह गिर पडा।

वहां लोगों को अपना ही होश नहीं था, नवाब को कौन देखता और जो हाल उस हसीना की गोद में बेशर्मी से सोने वाले के भाई का था, लगता था शायद सारा कब्रिस्तान जी उठेगा। उसके सारे कपडे तार-तार हो चुके थे। अपने बदन को वो अपने ही दांतों से जगह-जगह से काटकर लहूलुहान कर रहा था। बालों को नोच-नोचकर हाथ से खींचता तो बालों में खून इनके साथ मिट्टी की तरह चिपटकर आता था। उसे कौन सम्भालता.... वो होश खो बैठा था। अपने ही नाखूनों से सारा जिस्म खरोंच रहा था, कभी ज़मीन पर लोटता, कभी किसी कब्र पे सर टकराता। ऐसे में एक झाडी जिसके कांटों ने मिठाईयों की खुशबू से सराबोर रेशम के एक बडे से कपडे का दामन बुरी तरह से चीरकर पकड रखा था, से टकराकर वो बेहोश हो गया।

इतने पर भी आज बेशर्मी की मिसाल बन चुके अपनी ही दुनियां में मस्त और मुहब्बत में मगरूर उन दोनों आशिकों ने वो पत्थर की सेज नहीं छोडी। जिन लोगों ने उन दोनों की मुहब्बत को कबूल कर माथे पर बिठाया था, उन्हें भूलकर वो अपनी माशूक की गोद में लेटा रहा और दोनों एक दूसरे को अपने अन्दाज में देखते रहे। मां-बाप, भाई-बहन की मुहब्बत, दोस्तों का अपनापन और चाहने वालों के सारे जज़्बात से आज इन्हें कोई सरोकार नहीं था। जाने तो वे जाने या वो जाने कि उन्होनें दुनियां से किस बात का इन्तकाम लिया था। दुनियां ने सिर्फ़ दो दिन के वास्ते इन्हें जुदा किया था और इन्होंने दुनियां को हमेंशा के लिये ठुकरा दिया था। इनसे दो दिन की तडप बर्दाश्त नहीं हुई जो दुनियां को हमेशा-हमेशा के लिये तडपने पर मज़बूर कर दिया। इतना इन्साफ़ करते-करते भी इन्होंने दुनियां को रूस्वा और बदनाम कर जलील किया। उल्फ़त में ज़माने ने बहुतों को उजाडा होगा आज इन्होंने ज़माने को बर्बाद कर दिया और अपनी रूस्वाई, बर्बादी और जि़ल्लत के आंसुओं से ज़माने का आंचल भारी और भारी होता जा रहा था।
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लाख से चिपके हुए पंख एक हद तक साथ देते हैं। उस हद के बाहर जाते ही सूरज की तपिश से लाख पिघल जाती है और उन पंखों के आसरे पे उडने वाला परिन्दा इस कदर गिरता हे कि उसकी बोटी-बोटी बिखर कर छितरा जाती है। यही हाल हाल उस बूढी मां का हुआ। अपने बेटे की शादी की लाख से अरमानों के पंखों पर वह बहुत उंची उड रही थी और जब शादी के ख़्वाबों की लाख पिघल गयी तो अरमानों के पंखों ने उसका साथ छोड दिया। उनकी मौत का पैग़ाम देने वाले कारिन्दे ने ये भी नहीं सोचा कि कैसे एक मां का दिल इस सदमें को बर्दाश्त कर पायेगा? उसकी तमन्नाओं और आरज़ूओं पे क्या गुजरेगी? जिस हसीन ख़्वाब के सहारे वो जी रही थी उस ख़्वाब के टूट जाने पर उसके दिल से निकली हाय से न मालूम ख़ुदा का तख़्त उलट जाये और ना मालूम दुनियां के सारे कफ़न जल जायें?

इस ख़बर को सुनते ही उस मां का दिल चीख पडा। जैसे किसी ने उसके दिल को पकडकर मसोस दिया हो और उसके सीने से खींचकर जलते हुए कांटों पे डाल दिया हो। आखिर वो बूढी थी... इस सदमे को बर्दाष्त न कर सकी और सिर पीटते हुए एक पत्थर पर गिरी तो पत्थर का सिर लाल हो गया। फिर वो हाहाकार इस गांव में मचा जो रात में सियारों और कुत्तों के खेमें में भी नहीं मचा था।
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वक़्त कब, कहां और किस के लिये रूका है? जिन बजडों पर बारात आनी थी उन पर कफ़न आया और जिनको बारात में आना था वो मईयत में आये लेकिन उनकी अगुवाई और इस्तकबाल करने वाला कोई नहीं था। कई बजडे किनारों से दुश्मनों की तरह टकराये और कलेजा फाडकर बिखर गये जैसे कह रहे हों कि इस पार से कुछ ले जाने के बजाय अपना सबकुछ यहां गवां बैठे तो अब किसी मुंह से उस पार जाएंगे? बजडों के किनारे आते ही लोग बेतहाशा उस कब्रिस्तान की तरफ दौड पडे..... कौन किसके कदमों तले आ गया ये देखने और जानने की किसे फ़ुर्सत थी। पत्थर पे ठोकर लगती वो थोडा आगे हो जाता मानो कह रहा हो उठकार नही तो ठुकराकर ही हमें भी वहां पहुंचा दो।

जिस वक़्त वे सब वहां पहुंचे, शायद खुदा अपने कानों में डूजे लगा और आंखों पे पट्टी बांधकर बैठा होगा, वरना इनकी चीख-ओ-पुकारों और हालत पर उसे ज़रूर रहम आ जाता।
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दिनभर यही दौर चलता रहा। फिर एकबार और क़त्ल की शांम आ गयी। रोज की तरह मासूम चांद खंजर की तरह बादलों की म्यान से चुपके से निकला और सूरज का खून कर दिया जिसके खून से सारा आसमान लाल हो गया। धीरे-धीरे सूरज का लाल कफ़न जब काला पडने लगा तो इन्हें कफ़न देने का खयाल आया। कौन इतनी हिम्मत करता कि जाकर उनकी मुहब्बत में दखल करे? लेकिन रस्म वो है जो टूटती नहीं। मुहब्बत करनी चाहिये लेकिन उसमें अन्धा नहीं होना चाहिये। ये मुहब्बत में अन्धे हो गये थे। इस अन्धी मुहब्बत में इन्हें अपने सिवाये किसी की ख़बर नहीं रह गयी थी और ऐसे अन्धेपन में ये दीन, दुनियां और अपने वतन के लिये ही नहीं बल्कि ख़ुद अपने लिये भी कुछ नहीं कर सकते थे। इसलिये इनकी यहां कोई ज़रूरत नहीं रह गयी थी। तराशने से पहले हीरा महज़ एक कालिख ही तो है, तराशने के बाद ही उसकी खुबसूरती और कीमत निकलती है। लेकिन हीरा कितना भी खूबसूरत और कीमती क्यों ना हो उसे खाकर किसी की भूख तो नहीं मिट सकती। फिर ये तो अभी कच्चे हीरे थे जो तराषने की जल्दबाजी में नातजुर्बेकारों के हाथों टूटकर बिखर गये थे। उन दोनों की लाश बन चुके जिस्म की इस बिखरी हुई धूल को दो चार जवानों ने दिल मजबूत कर सहेजने की कोशिश की लेकिन उनके जिस्म अकड चुके थे और हरचन्द कोशिश के बाद भी अलग नहीं किये जा सके तो उन्हें उसी हालत में गुलाब की खु़शबू से तर पानी से नहलाकर शादी के जोडे पहनाये गये। आंखो में काजल, गले में गजरे, हाथों में मेहन्दी और होठों पे मुस्कान की लाली उनकी मुहब्बत के सफ़र की कामयाबी में आयी सुहागरात की दास्तान कह रहे थे। उस दुल्हन के हाथों में वो दिलरूबा भी चिपका रहा और उसकी वफ़ा को भी फूलों से नवाज़ा गया।

वो घडी भी आयी जब फूलों से भरी हुई कब्र में उन्हें उतारा गया जैसे किसी नये जोडे को सुहागरात के कमरे में ले जाया जा रहा हो। इतना आहिस्ता उन्हें कब्र में उतारा गया मानो उन्हें डर हो कि कहीं इनकी नींद न टूट जाए। लगता था एक बार फिर हिचकियों का तूफान और आंसूओं की बाढ आयेगी लेकिन उस वक्त सब हाथों में गुलाब लिये आंखें बन्द किये परवर दिगार से सिर्फ़ दुआ कर रहे थे। दुआ ख़त्म होने पर फूलों की बरसात शुरू हुई और कब्र फूलों से भरती गयी। कब्र फूलों से भरती गयी और वो दोनों फूलों के सैलाब में डूबते गये। अपनी माशूक की गोद में लेटा हुआ वो गरीब तो बहुत पहले ही डूब गया था, नवाबजादी उसके बाद डूबी। तबक उस कब्र में सिर्फ़ फूल दिख रहे थे। कब्र फूलों से भर गयी। उस कब्र में वो दोनों हमेशा-हमेशा के लिये दुल्हा दुल्हन बन के रह गये। वो कभी उन जोडों को नहीं उतारेंगे, कभी उनके सेहरों के फूल नहीं मुरझाएंगे, वो हमे अपनी माशूक की गोद में सोता रहेगा..... वो हमेशा अपने शौहर को लोरी सुनाती रहेगी। वो हमेशा उसकी जुल्फों से खेलता रहेगा... वो हमेशा उसका दिल सहलाती रहेगी। वो हरदम उसकी सूरत ताका करेगी और वो हमेशा उसकी आंखों में ख़ुद को ढूंढता रहेगा। वो हमेशा चकोर की तरह उस चांद को देखा करेगा.... एक प्यासे की तरह उन घटाओं में पानी की उम्मीद में ताका करेगा और बस......
उनको फूलों से दफनाने के बाद चन्द लोग वहां रहे जो पत्थरदिल बनकर उन्हें लाल पत्थर की चादर ओढा रहे थे। बाकी वहां से लौट रहे थे दिलों में ख़्यालों का तूफान लिये चुपचाप.... अपने आप से बतियाते खमोश..... भीड में अकेले.... । आये तो यूं थे जैसे कब्रिस्तान से कुछ छीनकर ले जायेंगे और जा रहे थे खाली हाथ मगर गर्दनें किसी भारी बोझ से झुकी थी.... पांवों की रफ्तार किसी रेत के समन्दर में चलने के मानिन्द कम थी।

वो दोनों गांव उजड कर रह गये। नवाब और उसकी बूढी मां के ख़्यालों के महल न सिर्फ़ अधूरे रह गये बल्की वो टूटे और इन्हें भी तोड गये। दोनों गांवों में शहनाईयां की गूंज मातमी सन्नाटे में बदल गयी थी। किसी गली कूंचे में, किसी मकान में कोई चिराग़ रोशन नहीं हुआ था। इन्सान से लेकर जानवर और जानदार से लेकर बेजान साये अन्धेरों की चादर ओढे अपने अन्दर भी मायूसी के धब्बों को समेटे थे। फटे हुए दुप्पट्टे के सुराख से झांकती हुई खुबसूरत हसीना की तरह चान्द बिखरे और उडते हुए बादलों से आज मुंह छिपाये सा निकला था और बुत नज़र आ रहे हर एक शै पर अपनी नाकाफी चाँदनी के छींटे मारकर उनमें जान डालने की कोशिश कर रहा था लेकिन उडते हुए बादलों के गहरे काले साये कफ़न की तरह उन्हें ढक रहे थे।
ये आंख मिचौली चलती रही। किसी घर में ना तो चूल्हा जला ना चिराग रोशन हुआ। दोनों गांव अन्धेरों में रो रहे थे और लोगों की सिसकियों से वो गांव सिसकियों के गांव लगते थे। रातभर लटकने के बाद सुबह होते ही नवाब की हवेली के पीछे से हट जाने वाला रस्सा आज दिनभर बेखौ़फ़ और दिल खोलकर उस दीवार से प्यार करता रहा। आज उसे किसी का डर नहीं था। फिर एक प्यार करने वाली शहजादी की करीबियां पाकर वो भी प्यार करना सीख गया था। मुहब्बत की बरसात में भीगा वो ख़ुद और किसी के इन्तज़ार में एक ही तरफ ताकती उस भीगी हुई दीवार को उसने झूम-झूम कर यहां वहां से चूमा और दिनभर मुहब्बत का जश्न मनाया। लेकिन दीवार जानती थी कि रोजाना की तरह उसके इस आशिक को चले जाना है और उसे देखते रहना है उस तरफ जिस तरफ मुहब्बत की शहजादी गयी थी।
गिन-गिन के कदम आगे रखते हुए वक़्त आगे बढ रहा था। दोनों गांवों के मातमी माहौल के साथ आसमान की भी रह-रह के सिसकियां उभरने लगी थी। चाँद ने आंसुओं से भारी हो चुके बादलों के अपने दुपट्टों को निचोडा तो नवाब की हवेली की छत पे बेसुध पडी उस कनीज के सीने और चेहरे पे पानी की बून्दें मधुमक्खियों के पगलाये झुण्ड की तरह पिल पडीं और तभी हवा को चीरता हुआ दिल में ख़ौफ़ पैदा करती हुई घडियाल के घण्टे की आवाज़ ने उस क़नीज़ की आंखे खोल दीं। उसके होश ठिकाने आने लगे। उसे बीते कल की याद आने लगी। ख़्वाबों की तस्वीर में कुछ भूला हुआ उसे याद आने लगा। हमेशा की तरह नवाबज़ादी को विदा करके वो वहीं क्यू सो गयी, ये उसे याद नहीं आ रहा था। इसे याद करने की कोशिश में उसका दिमाग बहुत जोरों से दर्द करने लगा। आज दूसरी रात हो गयी, किसी ने आकर उसे जगाया क्यों नहीं? क्या नवाबजादी को भी उसका ख़याल नहीं रहा? क्या उसकी शादी होकर वो विदा हो चुकी? वो उससे मिलकर भी नहीं गयी।।। उसने अपने जिस्म की बोटी-बोटी को दुखते हुए महसूस किया। दर्द से सर फटता जा रहा था। मरे हुए की तरह हाथ उठाकर सर सहलाया तो दिमाग को झटका सा लगा। उसका हाथ गले में लिपटे बालों पर गया तो उसे पिछली रात का सारा वाक़या याद आ गया। उसने तो मरने के लिये अपने गले में अपने ही बालों का फन्दा लगाया था, लेकिन वो जिन्दा कैसे बच गयी? नवाबजादी को उसने मिठाई में...... शायद अब तक तो वो....... शायद इसीलिये वापस न आ सकी............।

उसे ज़मीन आसमान घूमते नज़र आने लगे। दिलरूबा और उस महबूबा की आवाज़ उसे अपने कानों में पिघली हुई आग की तरह महसूस होने लगी। वो तडप उठी। उसकी बदनसीबी कि वो चीख भी नहीं सकी। गले में फन्दा लगने से उसकी जीभ नाकाम हो गयी थी। सियारों की हू-हू भी नहीं सुन सकी। कानों के पर्दे फाडकर खून बहने से वो बहरी हो गयी थी। आंखें कुछ-कुछ काम दे रही थी। चीखने की कोशिश में खून का एक फव्वारा उसके मुंह से निकल कर दोनों कानों को सुर्ख कर गया।

उसकी इतनी हालत नहीं थी कि वो उठ सके। लेकिन सबकुछ भूलकर वो उठी और दीवार से रस्सा जुदा होता चला गया। अन्दाजे़ से वो ज़ीना उतरने लगी। पीछे से रस्सा किसी सांप की तरह उसके साथ था। बमुश्किल दो मंजि़ल उतर कर उसके कदम लडखडा गये। आखि़र वो कब तक इस हालत में ज़ीना उतर सकती थी। दीवारो ने सहारा नहीं दिया। वो गिरती चली गयी और गिरती चली गयी।

उसका अंजाम..... जगह-जगह से मांस निकल गया। रही सही आंखों की रोशनी भी चली गयी। लेकिन इन सब का उसे ग़म नहीं था, उसे मलाल था तो इस बात का कि ख़ुदा ने उसकी किस्मत कांटों को ज़हर से डुबो कर लिखी थी, बदन से कितना नाज़ुक बनाया था लेकिन मौत जैसे उससे डरकर दूर भागती रही थी। जबकि एक सांस के सिवा कुछ भी बाकी न रह गया था उसमें। मौत उसे क्यों आये। हर किसी के मुक़द्दर में मौत का मज़ा नहीं होता।

नीचे आंगन में गिरते ही लहू छितरा गया। लेकिन न मालूम वो कितनी कड़क जान हो गयी थी, वो उठी और पागल शराबी की तरह भागने लगी। हवेली का दरवाज़ा खुला था वो भागी..... पीछे रस्सा आंगन में गडी हुई किसी कील से उलझ गया तो उसके बाल जडों से उखड के हवेली के दरवाजे़ के बीच में बिखर गये। वो आदमकद बाल जैसे हवेली से कोई नागिन खून उगलती हुई बाहर निकल रही थी।
होश खोकर किये गये काम का मलाल बाद में होता है। इसे भी मलाल आया। अपने इन्तकाम की चिन्गारी का इतना खौफ़नाक नज़ारा देख उसका रोम-राम कांप उठा। उसका जिगर जगह से हिल गया। खुद अपने आप को धुतकारने लगी। उसका क्या हक़ था अपने पेट की आग के लिये दूसरे के मुंह से रोटी छीनने का? वो मांग भी सकती थी। बदला नवाब से लेती जिसने उसे अपने अहसानों तले दबाकर सिसक-सिसक कर मरने के लिये मज़़बूर कर दिया था। उस गरीब बूढी मां का क्या क़सूर था, वो भी तो उसकी तरह गरीब थी। उस गरीब मां के दिल की हाय का ही करिश्मा था कि उसे क्या से क्या बना दिया था, लोग उसे पहचान तक नहीं सकते थे।
उस वक्त कब्रिस्तान में वे चन्द लोग उनका मज़ार बना चुके थे और आखि़री पत्थर रखने की कोशिश कर रहे थे और ये भागती चली आ रही थी। जैसे उसे उम्मीद हो कि वो जिन्दा होंगें। लेकिन कब तक भागती? उसके बदन ने उसका साथ देना छोड दिया। आंखो से देख नहीं सकती थी। न मालूम कितने पत्थरों, कांटों, झाडियों ने उससे गिन-गिन कर बदला लिया। हर कदम पर उसे ठोकर लगती, हर चीख का गला घुट के रह जाता। अपने पीछे वो खून के निशान छोडती आ रही थी। कब्रिस्तान के पास पहुंचते-पहुंचते वो गिर गयी। उसने फिर खुद को घसीटना शुरू किया। अब तो उसकी सूरत से ही नहीं उसके नाम से भी नफ़रत आने लगती थी। कल तक जिसका शबाब छलकते जाम की तरह था आज शीशे की तरह टूटकर बिखर गया था। सारे बदन पर मिट्टी लिपटी थी, सर पे घटाओं जैसे बाल की जगह कीचड सा हो गया था, कपडे तार-तार होकर वो कल की हसीन नाज़नींन आज की चुडैल हो गयी थी।

वो मज़ार दर मज़ार टक्करें खाती रही लेकिन किसी मज़ार ने उसे पनाह नहीं दी न उसे उस मज़ार तक पहुंचने दिया। उन्हें भी शायद उससे नफ़रत हो गयी थी। इसी आलम में उसे मुर्दा पेडों से भी मार खानी पडी और छोटे-बडे खड्डों ने भी उसके पांव तोडने में कसर नहीं छोडी। इसी तरह हर तरफ से ठुकरायी हुई वो बदनसीबा बेहोश होकर गिर गयी।

अब तक उन दोनों की कब्र ढक चुकी थी। उस पर दो चिराग़ जलाकर वे लोग जा चुके थे। लेकिन वो दोनों चिराग़ तो बुझ गये थे। क्या हवाओं के सामने भी कोई चिराग़ रोशन रह सके हैं? काश उस हवा को भी किसी दीवार की बांहों का सहारा मिल गया होता।। उसे कोई दामन मिला होता जिसके आगोश में वो अपनी हस्ती को जज़्ब कर देती।। तो वो यूं आसरा न भटकती और कोई चिराग़ गुल नहीं होता।

वो भी एक हवा बनकर रह गयी।। पागल हवा.... उस पागल हवा की हद कब्रिस्तान था। वो उन कब्रों में उस कब्र को तलाश करती फिरती थी। रात को अश्क़ ढलकाया करती और रोज ही वहां किसी दिलरूबा के बजने की आवाज़ आया करती।

आज भी वो हवा भटकती है, उन कब्रों में एक कब्र ढूंढती है। आज भी उस मज़ार पे किन्हीं रूहों के बैठे होने का वहम होता है। आज भी वहां दिलरूबा की आवाज़ महबूबा के गले के साथ सुनाई पडती है। आज भी घडियाल का घण्टा लोगों को सो जाने का हुक्म सुनाता है और मुर्दों को जगाता है। आज भी मुर्गे बांग देकर ज़माने का जगाते हैं और मुर्दों को सो जाने की इल्तजा करते हैं।

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एक औरत के इन्तकाम की दास्तानं। सर्दियों में बरसात के बाद चलने वाली मासूम लेकिन बर्फ़ के सीने से निकलकर आते खंजर की तरह ख़तरनाक़। औरत का दिल फूल ही नहीं पत्थर भी होता है। मुहब्बत की राह में ख़ुद के जिग़र के लहू से मुहब्बत का चिराग जलाने वाली औरत जब बेवफ़ाई और इन्तक़ाम पे आमादा होती है तो खु़दाई भी उसके सामने बौनी हो जाती है।

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लेखक - हुकम सिंह जी 

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