तुम इश्क़ हो !

वे तीन ख़ूबसूरत शब्द हमेशा खोखले से लगे मुझे, जो अनगिनत बार सुनकर भी एक अनगढ़ बांसुरी के अधूरे बिखरे से सुरों का आभास देते रहे ...कहने वाले की आंखों में न वह मासूमियत थी न कशिश उस इश्क़ की जो गाहे बगाहे मेरी डायरी के पन्नों को महकाता रहा, भिगोता रहा या फिर यूँ कहूँ कि मेरी सोच में डूबता उतरता रहा। एक दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ था भी नहीं शायद तब उसका अस्तित्त्व और इसीलिए यायावर सी मैं इश्क़ को तलाशती रही ...कभी किताबों में, कभी गीतों में, कभी ख़्यालों के रेशमी जाल में उलझते-सुलझते , कभी बेचैन रात की उनींदी आँखों में करवट लेते ख़्वाबों में । फिर एक दिन तुम्हें गढ़ लिया मैंने ... हाँ 'तुम' ही तो थे जो मेरे तन्हा सफ़र में साथ चलते रहे, भीड़ में अकेलेपन का वो एहसास तुम्हारे मुस्कुराकर देखते ही छूमंतर हो जाया करता, तुम्हारे साथ हँसते-बोलते वक़्त गुज़र ही जाता पर फिर बेवक़्त टूटी नींद जाने कब भर देती मेरे मन को अंधेरे की परछाईयों से जो सुब्ह होने तक डराती रहती मुझे ।
         कहीं किसी किताब में पढ़ा था कभी कि एक वक़्त ऐसा भी आता है जब कोई ख़्वाहिश न रहे, मन एकदम शांत हो जाए, कुछ भी अधूरा न लगे.... न कविता, न ज़िन्दगी बस उसी लम्हे में होता है इश्क़ और देखो 'तुम' ले आए वही इश्क़ ! तब कहीं जाना कि ख़ुशी किसी ज़रिये की मोहताज नहीं वह तो बस है, आसपास ही है.... बस रूबरू तुमने करवाया और सुनो उसी दिन मेरा इश्क़ मुक़म्मल हो गया । सच है इश्क़ कभी इकतरफा नहीं होता , अधूरा भी नहीं होता या तो होता है या बस नहीं होता । ख़ुशी अब मेरी पक्की वाली सहेली है पर हाँ सुनो मुझे यायावरी अब भी बहुत पसंद है, ये सफ़र जो इतना ख़ूबसूरत है और तुम तो हो ही मेरे हमसफ़र.... सुनो यूँ ही जीते रहना मुझमें घुलकर और मैं समेटती रहूँगी अपने इश्क़ के दामन में खुशियों के फूल, कल चाहे जो हो मेरा इश्क़ अब मेरा है ...हमेशा के लिए !

#सुन_रहे_हो_न_तुम

©विनीता किरण

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