प्रेरक संस्मरण

मानव समाज में इस तरह के कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ अभावों और संघर्षों से घबरा कर व्यक्ति अपनी सहनशक्ति खो बैठता है और या तो निरुत्साहित होकर मृत्यु का वरण कर लेता है या फिर बगावत कर बैठता है समाज से ही और स्वयं भी किसी न किसी रूप में दमनचक्र का हिस्सा बन जाता है | ऐसे व्यक्ति समाज में कोई सार्थक बदलाव ला सकते हैं, ऐसा शायद ही संभव हो, सीमित समय के लिए ध्यानाकर्षण अवश्य कर सकते हैं परन्तु उसका कोई सकारात्मक परिणाम भी निकले ये कतई आवश्यक नहीं | मानव प्रकृति का एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसे न केवल सोचने-समझने की शक्ति प्राप्त है अपितु उस शक्ति के प्रयोग से वह अपना और अपने जीवन से जुड़े व्यक्तियों का भी जीवन बदलने का सामर्थ्य रखता है | आवश्यकता है तो बस मनोबल की और सकारात्मक सोच और जुझारूपन की, विपत्तियों से हार मानकार उनके समक्ष घुटने टेक देना आसान रास्ता है परन्तु उन्ही विपत्तियों के सामने डटकर खड़े होना और अपनी सकारात्मक सोच से दूसरों में भी संघर्ष की मनोवृति जगाना दुर्गम मगर सार्थक रास्ता है जो देर-सवेर मंजिल तक पहुँचता ही है और समाज में बदलाव की नींव रखने का कार्य भी करता है |
           झारखंड के आदिवासी और पिछड़े हुए एक छोटे से गाँव जामतारा का 28 वर्षीय युवा सुमित शरन एक ऐसा ही उदाहरण है जिसने तमाम मुश्किलों और अभावों से संघर्ष करते हुए एक सार्थक और सकारात्मक सोच को अपना हथियार बनाकर अपने आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए छोटे से गाँव में बदलाव का बिगुल बजाया है | आर्थिक रूप से पिछड़े हुए एक शोषित तथा बिखरे हुए परिवार में जन्मे सुमित ने बचपन से ही स्वयं को अभावों और शोषण के वातावरण में पाया | बाल्यकाल में ही माता-पिता के संबंधों में दरार के दुष्परिणामों से आहत, मूलभूत सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करने वाला बच्चा, जो कई बार न केवल आर्थिक शोषण का शिकार हुआ अपितु उसे शारीरिक रूप से भी प्रताड़ना झेलनी पड़ी | आसपास के लोगों के छोटे-छोटे काम करना और बदले में अपनी माँ के साथ मिलकर दो वक़्त की रोटी का बमुश्किल जुगाड़ कर पाना, परन्तु साथ में प्रतिदिन मिलने वाली झिडकियां, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना भी इस बच्चे को कमज़ोर न कर पायी | बचपन से ही उसके अपने संघर्ष ने उसे प्रेरित किया स्वयं को शिक्षित करने के लिए, पर्याप्त साधनों का अभाव भी उसके इस इरादे को कमज़ोर नहीं कर सका और लोगों के छोटे-छोटे कामों के बदले उनके बच्चों की उपयोग की हुई पुरानी पुस्तकें और आधी खाली कापियां उसकी स्व-शिक्षा का साधन बनी | उसके दृढ निश्चय को देखते हुए उसके रिश्तेदारों ने उसका दाखिला एक निजी विद्यालय में करवा दिया जो संभवतः किसी समाज-कल्याण संस्था द्वारा संचालित था, शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा न होते हुए भी अपनी मेहनत व लगन से सुमित महज़ 13 वर्ष की आयु में मेट्रिक की परीक्षा में बैठा परन्तु परीक्षा परिणाम उसके पक्ष में नहीं रहा, बावजूद इसके उसने हिम्मत नहीं हारी और दोगुनी लगन और मेहनत से पुनः परीक्षा दी और उतीर्ण भी हुआ और वहीँ से बीज पनपा एक स्वप्न का .... अपने जैसे अभावग्रस्त बच्चो को शिक्षित करने का स्वप्न ! अपने छोटे से कच्चे-पक्के एक कमरे के घर के बरामदे में शुरू हुआ वो सिलसिला आज कुछ अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संस्थाओं की अल्प मदद से एक ईमारत की शक्ल ले रहा है, जो समर्पित होगी उन असहाय और अनाथ बच्चों को जिनके लिए शिक्षा तो दूर कभी एक रोटी भी दिवास्वप्न की तरह थी, ये न केवल उनके लिए आश्रय बल्कि उन्हें स्वावलंबी बनाने के सुमित के सपने की पहली सीढ़ी होगी | यहाँ तक का सफ़र आसान नहीं था सुमित के लिए, परन्तु अपनी जान का जोखिम भी उसे अपने रास्ते से डिगा नहीं सका | स्वयं को शिक्षित करने से लेकर दो वर्ष पहले अपने पहले मोबाइल द्वारा फेसबुक व अंतरजाल से जुड़कर अपने सपने को अभियान की शक्ल देना सुमित के जुझारूपन का प्रत्यक्ष प्रमाण है | आज उसके अपने छोटे भाइयों के साथ-साथ 30-35 अन्य बच्चों को शिक्षित करने का जिम्मा इस युवा ने उठाया है वो भी बिना किसी सरकारी या नियमित आर्थिक मदद के ....ये निश्चय ही उसके अपने गाँव के साथ-साथ आसपास के अन्य कई गाँवों में रौशनी की किरण लाएगा | सच है अगर ठान लें तो मुश्किलें भी अपनी राह बदलने को विवश हो जाती हैं बस चाहिए तो हौसला और विश्वास स्वयं पर |
©विनीता सुराना 'किरण'

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