वो बंद खिड़की

एक खिड़की जो जाने कब से बंद रही, जान बूझ कर या बेपरवाही में... भूल गए थे कि उसने कितने ही ताज़ी हवा के झोंकों को, चाँदनी की रेशमी ठंडक को, पीछे वाले घर में हँसते-खिलखिलाते मोगरे के फूलों और हौले से अपने पंख खोलती कलियों की मीठी ख़ुशबू को रोके रखा था । सुबह की उजली धूप और रंगों में नहायी शाम की आहट तक नहीं आती थी सीढ़ियों को थामे उस 6/7 फुट के कोने में, धूल जमे शीशों ने उन्हें झांकने भी कहाँ दिया भीतर ... मायूस से उस कोने से वक़्त-बेवक़्त आती आहें बेचैन तो करती थी मन को मगर अपने भीतर का शोर कब का बहरा बना चुका ।
         आज अचानक तुम्हारी कही वो बात याद आ गयी कि समय-समय पर घर की सभी खिड़कियों को खोलकर झाड़-पोंछ लेना अक़्सर भीतर के ऑक्सीजन की कमी को तो पूरा कर ही  देता है, साथ ही मौसमों की मार से उभर आयीं कुछ अनचाही दरारें भी नज़र में आ जाती हैं। खिड़की के पास की दीवार पर सच में दरारें दिखने लगी थीं मगर बहुत कोशिश करके भी खिड़की नहीं खुल पायी तो आज आख़िर उसे निकलवा ही दिया । ताज़े झोंकों से जैसे जी उठा वो उपेक्षित मगर जरूरी कोना और भर गया उजास और ऊर्जा पूरे घर में।
        कुछ दिनों से घुटन सी भरने लगी है भीतर ... एक खिड़की कहीं मन के किसी कोने में भी जाम तो नहीं या शायद आसपास दरारें उभर आयीं हों ... अरसा हुआ तुमसे खुलकर बात नहीं हुई ऐसे में जान ही नहीं पाई इस उदासी और बेचैनी का सबब ... सुनो थोड़ा वक्त निकालकर, देख लो न ज़रा क्योंकि मेरे मन को समझने और सुधारने के लिए तुमसे अच्छा मिस्त्री मेरी नज़र में कोई नहीं 😜❤

#सुन_रहे_हो_न_तुम

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