सवाल

"अगर वह ख़ुद नहीं कमाती तो क्या वह आत्मनिर्भर नहीं ? क्या इतना काफी नहीं कि वह सम्पूर्ण परिवार की धुरी है और सभी सदस्य उस पर निर्भर हैं ? फिर क्या वजह है कि उसे आत्मसम्मान से जीने का हक़ भी नहीं ? ऐसे कितने ही सवालों के जवाब तलाश रही हूँ, जब मिल जाएंगे तो सुकून से तुम्हारी बाहों में समा जाऊँगी पर आज इतनी दुविधा लिए मन में मैं नहीं थाम सकती तुम्हारा हाथ ...", उसने जब कहा था तो वह जैसे निरुत्तर हो गया था ।

         जानता था उसका ईशारा किस ओर था ... शायद ये चार क़दम का फ़ासला उसकी अग्नि परीक्षा थी। अपने ही घर से तलाशने होंगे उसे इन सभी प्रश्नों के जवाब, जहाँ बचपन से अपनी माँ को अपने पिता के हाथों बेइज़्ज़त होते देखता आया है आज तक । मन में सुलगते अंगारे लिए घूमता रहा, जला देना चाहता था हर वह रस्म जिसकी आड़ में उसकी माँ को कमज़ोर किया गया......जला देना चाहता था हर वह डर और असुरक्षा की भावना जो उसकी माँ के क़दम रोकते रहे उस घर की दहलीज़ को लांघने से .... हर उस महीन डोरी को जला देना चाहता था जो उलझी हुई थी या उलझाई गयी थी इस क़दर कि अपने पंखों को ही अपनी बेड़ियां समझ बैठी थी माँ !
      
          चाह कर भी उसके दूर जाते क़दमों को रोकने की कोशिश नहीं कर पाया वह बस इतना ही बुदबुदाया ख़ुद से "आऊँगा, जरूर आऊँगा .... हम मिलेंगे उस दिन जब या तो तुम्हारे सवाल नहीं रहेंगे या फिर मैं ख़ुद उनका जवाब बन जाऊँगा ... बस तब तक मेरा इंतज़ार करना तुम .. बोलो करोगी न ? और कोई सितम कर लेना बस ये विश्वास बनाये रखना कि हमें फिर इसी मोड़ पर मिलना है ... आगे का सफ़र तुम्हारे बग़ैर मुमकिन ही नहीं मेरी हमराह !
      
#सुन_रहे_हो_न_तुम

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