एक खत रंगों के नाम

मेरी अभिव्यक्ति के साथी,
         तुमसे बिछड़े अरसा हुआ पर यकीन मानो मैं कभी नहीं भूली तुम्हें ... हाँ दूर कर लिया ख़ुद को तुमसे पर इसलिए नहीं कि तुमसे नाराज़ थी, कैसे नाराज़ हो सकती थी तुमसे ? तुम ही तो थे जिसने मुझे अपने-आप से मिलवाया, जो कुछ शब्दों में भी बयां करने की हिम्मत न जुटा सकी वो तुम्हारे ही माध्यम से तो साझा किया, तुमने मेरी कितनी ही कल्पनाओं को साकार किया, मेरे श्वेत-श्याम से ख़्वाब जब कागज़ पर उतरे तो तुम्हारी ही चमक ने उनमें जीवन भर दिया। मेरी मनोदशा के हिसाब से तुम हल्के, गहरे, चटक, फ़ीके कितने ही रूप बदलते रहे पर कभी कोई शिक़ायत नहीं की, कभी थके भी नहीं बस मेरे साथ चलते रहे, मेरे सभी एहसास ख़ुद में समेटे और मेरे मन को सुकून देते रहे। तुम सच्चे दोस्त थे पर मैं ! मैं अपनी उलझनों में यूँ उलझी कि तुम्हें ही भुला बैठी, बिना कोई कारण बताए तुम्हें खुद से दूर कर दिया। तुम यदा-कदा मेरे सामने आ जाते, कभी दराज़ों की सफाई में, कभी पुरानी पेंटिंग की झाड़पौंछ में, मेरी बेकद्री से सूखे से, मुरझाए से ..... पर मैं ही ख़ुद को तैयार न कर पाई तुम्हें फिर से अपनाने के लिए, क्या करती जो अब तक ख़ुद की भी पूरी न हुई तो अपना अधूरापन भुला तुम्हें भला क्या दे पाती ? पर सोचती हूँ जैसे मैं अब भी अधूरी हूँ तुम बिन तो क्या तुम भी अधूरे हो मेरे बिना ?अगर ये सच है तो क्यों न फिर से एक मुलाक़ात करें, मेरी उंगलियां बेचैन हैं आज भी तुम्हारे स्पर्श को, हाँ तुम्हें तो पता है मेरी उंगलियों को कितना पसंद है तुम्हारा स्पर्श, तो फिर आओ न ... एक बार फिर रचें हम अपना रंगीन संसार ... बस मैं और तुम ! हाँ 'रंग' अब चले भी आओ ...

#किरण

Comments

Popular posts from this blog

लाल जोड़ा (कहानी)

एक मुलाक़ात रंगों से

कहानी (मुक्तक)