उनकी दास्तान (2)

तफरीह पसन्द नवाबजादी अपनी सहेली के साथ तफरीह के वास्ते दिलरूबा लेकर दरिया किनारे आयी थी। एक बडी सी चटटान पर बैठी शांम के धुंधलके में दिलरूबा पर भीगे-भीगे सुरों में कुछ गुनगुना रही थी। दिलरूबा बजाने में वो इतनी गाफि़ल थी कि उसे मालूम ही न था कि वक़्त की घडि़यां कहां तक खिसक चुकी थी।

उधर उस नौजवान के खण्डहरों में जैसे उस आवाज़ ने जान डाल दी थी। उसके मकान का एक-एक पत्थर जैसे गीत गा रहा था। उसका दिल जैसे कह रहा था कि उस गीत के ज़रिये कोर्इ उसे बुला रहा थां। वो घर से एक अन्जान बन्धन में बन्धकर अन्जान मंजि़ल की तरफ़ उस आवाज़ के सहारे चल दिया। जैसे उसके पावों को किसी कच्चे सूत से बान्ध कर कोर्इ धीरे-धीरे अपनी तरफ़ खींच रहा हो। उसे कुछ मालूम नहीं था कि वो कहां जा रहा है।

जहां वो पहुंचा उस मंज़र को देखने के लिये जैसे सूरज भी डूबते-डूबते रूक गया था। हर चीज ठहरी-ठहरी सी महसूस होती थी। चल रहा था तो बस मौसिकी का जादू....। दूध से धुले संगमरमर पर दो सितारे हर बात से बेख़बर दिलरूबा के सुरों से उस दरिया की कलकल के साथ छेड कर रहे थे। दीवाना सा खडा देखता रह गया वो।

सारा गांव अपने कामों में मशगूल था। बहुत देर तक मौसिकी का जादू चलता रहा। शांम की हवाओं पे संगीत लहरियां तैरती हुर्इ उसे जन्नत की ज़ीनत बना रही थी। दो परियों और एक शहजादे की महफिल लगी हुर्इ थी। तीनों किसी बुत की तरह बैठे थे सिफऱ् नवाबजादी की उंगलियां और होंठ हिल रहे थे वरना उनके बदन में सांस चलने का भी पता नहीं चलता था।

यकायक! धम्म्म्म्म... की आवाज़ हुयी। हाथ रूके और दिलरूबा चुप हो गया। ख़याल टूट गये। मानों कोर्इ मीठा-मीठा ख़्वाब देखते-देखते किसीने झिंझोड़कर उठा दिया हो। चौंककर उस तरफ देखा। किनारे का एक बडा पत्थर दरिया की लहरों से मुहब्बत कर बैठा था और अब वो लहरों की गिरफ़त में आहिस्ता-आहिस्ता अपना वज़ूद खो रहा था।
लेकिन वो जुल्फ़ों का क़ैदी!!! उसे मालूम ही नहीं था कि क्या हो गया था। लेकिन दिलरूबा के चुप होते ही जैसे उस पर भरी सर्दी में किसी ने बफऱ् का पानी ड़ाल दिया हो। जैसे दिलरूबा की आवाज़ के साथ-साथ उसकी जान भी निकल गयी हो। दिल की तड़प होठों से आह बन के निकली तो उन दोनों के रहे सहे ख़्वाब भी टूट गये। मुड़ के देखा तो जाना कि वो जादूगर उनके कितने क़रीब बैठा था। कोर्इ अजनबी कितनी देर से उनके क़रीब बैठा था। कुछ-कुछ घबराहट और कुछ शर्म के मारे शांम की सारी लाली उनके रूख़्सारों पे सिमट आयी। होंठ थर-थर कांपने लगे और कांपती अंगुलियों से नवाबजा़दी ने अपनी ज़ुल्फों को चेहरे पर नक़ाब की तरह डाल लिया। चान्द भला कब उसके मुकाबिल होता।

चढ़ती उतरती सांसों पे काबू पा लेने के बाद तिरछी निगाहों से देखा तो देखती रह गयी। वो दोनों तितलियां उस फूल को निगाहों से चूमती रह गयी। मगर वो भंवरा सिर्फ़ उस कली को निहार रहा था जो अभी-अभी शर्म-ओ-हया की शबनम से नहायी थी। आंखों-आंखों में जन्म-जन्म की मुहब्बत का दीदार होता था। दिलरूबा हाथ में लिये नवाबज़ादी ऐसे लग रही थी जैसे जन्मों से कोर्इ माशूक़ अपने महबूब को बुला रही हो।

ना मालूम कितनी देर तक तीनों ख़्ाामोश-ख़ामोश बग़ैर कुछ कहे, बग़ैर पलकें झपक एक दूसरे को निहारते रहे। कुछ ना कह कर भी उन चन्द लम्हों में उन्होंने वो बातें कर ली थी जो लोग बरसों साथ रहकर भी नहीं कर पाते। मुहब्बत का शोला उनकी रग-रग में पहुंच गया था और उस ख़्ाामोशी को उस अनोखे जादूगर ने तोड़ा था जो उस वक़्त हाथों को उनकी तरफ उठाये घुटनों पे बैठा था और साज़-ओ़-आवाज़ की मलिका से दिलरूबा बजाने अर्ज कुछ इस अन्दाज़ में की थी जैसे कोर्इ मरने वाला चन्द लम्हों की जि़न्दगी की भीख फ़रिश्तों से मांग रहा हो।

वो भीख उस फराग़दिल शहज़ादी से उसे मिली थी। महलों की मलिका ने उस दिल के शहंशाह फ़क़ीर को निहारते हुए दिलरूबा पर फिर से अंगुलिया चलाना शुरू कर दिया था और अब जिस रफ़तार से उसकी अंगुलिया उन तारों पर फि़सल रही थी लगता था जैसे कभी नहीं रूकेगी..... कभी नहीं।
वक़्त किसके रोके रूका है? रूकने के मामले में वक़्त बेहद मज़बूर है। रच़्तार का डण्डा हाथ में लिये वक़्त ख़्ाुद भी नहीं रूकता और अपने से जुड़ी हर शय को हर लम्हा हांकता रहता है। डूबता हुआ सूरज इस उगती हुयी मुहब्बत का गवाह बन चुका था। शांम की वो लाली इस मंज़र को देखने दूध से नहाकर आये सितारों और पूरे चान्द की चान्दनी के बावजू़द जलन की आग से काली हो गयी थी। क़नीज़ को उसके फ़जऱ् के अहसास ने शहज़ादी का हाथ पकड़कर दिलरूबा रूकवा दिया। वक़्त के तक़ाज़े ने मुकाम पर लौटने की याद दिलायी। लेकिन उन दोनों दीवानों को वक़्त की फि़क्ऱ कहां थी। वो अभी और रूकना चाहते थे। हां.... आबरू के ख़्ायाल ने शहज़ादी को उठने पर मज़बूर कर दिया। फूलों से लदी शाख़्ा का गोया एक-एक फूल वज़न कम किया जा रहा हो और शाख़्ा उठ रही हो और उसे फूलों की जुदार्इ का ग़म सता रहा हो वो हाल इस दम शहज़ादी का था।

जाना एक मज़बूरी थी। जुबान और अल्फ़ाज़ धोखा दे गये थे, मगर आंखों ने बडी वफ़ा की कि झुककर पयाम देने के साथ-साथ अपनी मुहब्बत का पैग़ाम और मज़बूरी का हज़हार भी कर दिया। आहिस्ता से पहला कदम उठा पत्थर के कलेजे को चीथकर नवाबज़ादी दूसरा कदम उठा भी नहीं पायी थी कि उसके नाज़-ओ-अन्दाज़ से घायल बेख़्ाुदी और दीवानगी में शायरी कर बैठा।

जैसे ही दिलरूबा बन्द हुआ था उसे लगा था जैसे किसी ने उसके दिल को निचोड़कर सारा ख़्ाून निकाल दिया हो और उस नाज़नी को वहां से जाते देख उसे लगा था जैसे उसके निचोडे हुए दिल को जलते हुए कांटों पे फेंक दिया गया हो। इतना ज़ुल्म सह सकना किसी इन्सान की बर्दाश्त की हद में नहीं होता इसलिये वो फ़रियाद कर बैठा।
दूसरी तरफ उसके पांव जैसे उसी जगह चिपक गये थे। चाहकर भी कदम ना बढ़ पाये। नज़रें ऐसी झुकीं कि उठानी मुशिक़ल हो गयी। जब मुहब्बत की मय से सराबोर आंखें उठा ना सकीं और उस नाज़नींन से नक़ाब का वज़न भी ना उठाया जा सका तो उस सहेली ने सहारा दिया तब कहीं कदम उठे। वो एक कदम आगे चल रही थी और मन दो कदम पीछे लौट रहा था। रह-रह कर नज़र मुड़ रही थी मगर लाचारी में आगे चलना पड़ रहा था।फ़ासला बढ़ता जा रहा था लेकिन वो दीवाना ना मालूम किस उम्मीद पे वैसे ही घुटनों पे बैठा था और हाथ इबादत के अन्दाज़ में उठे हुए थे। ये अन्दाज़ जो वक़्त की शहज़ादी को रोक नहीं पाया इसीलिये पलकों की कोर पर दो आंसू आकर ठहर गये थे। दिल के आंगन से आवाज़ की सीढ़ी लगाकर अल्फ़ाज की शक़्ल में फ़रियाद ज़बान की छत पर आ गयी और होठों की मुण्ड़ेर से कूदकर फि़जां में फैल गयी। वो फरियाद जंज़ीर बनकर हुस्नपरी के पांवों में लिपट गयी और मज़बूर हो वो शरीफ़ज़ादी अपने बिसिमल के घावों पर अल्फ़ाजों का मरहम लगाने के वास्ते।और यहीं से उनकी जि़न्दगी में उस तूफ़ान का आग़ाज़ हुआ। वो तूफ़ान... जो आता तो है बहारों की सौग़ात लेकर जेकिन अन्जाम में होते हैं ना भूलने वाले फ़साने और ना मिटने वाल वीराने। हां......... जो नावाकि़फ़ थे उल्फ़त के नाम और अन्जाम से उन नादान दिलों से गुस्ताख़्ाी-ऐ-मुहब्बत हो गयी थी।

समन्दर के माफि़क़ दोनों का दिल भरा हुआ था और उस बहते हुए दरिया की तरह मचल-मचल रहा था। इस ख़्ाुशी को वो समेट नहीं पा रहे थे। उस रात उनकी खुशियों का पैमाना छलक-छलक जाता था।

इस ख़ुशी के जश्न में एक शख़्स ऐसा भी था जो अपने जज़्बातों को किसी पर भी ज़ाहिर नहीं कर सका था। कोर्इ नहीं जानता था कि उस बेचारी क़नीज़ के दिल पे क्या गुज़री? वो दोनों एक दूसरे की याद में ख़्ाुद को भूल चुके थे, ज़माना इस वाकि़ये से अन्जान कहीं अपने शबिस्तां में ख़्वाब देखने तो कहीं किसी फि़क़्र में मशगूल था। लेकिन ये बदनसीब लाचार अपने बिस्तर पे बेक़रारी से करवटें बदल रही थी। जितनी करवटें बदलती, सिलवटों के साथ उसकी उलझनें भी बढ़ती जा रही थी। उस रात इसे नीन्द नहीं आयी। आंख का काजल आंसुओं साथ बहकर कानों को दो पानी के सूखे डोरो से बांध गया। कमरा सिसकियों से भर गया तो सिसकियां पर्दों को रोशनी की तरह बींधकर बाहर निकल गयी और ठण्डी-ठण्डी हवाओं में अपना वज़ूद खो बैठी।

दूसरे दिन भी वो नवाबज़ादी अपनी सहेली के साथ दिलरूबा लेकर अपने दिलबर से मिलने गयी थी, और जी भर कर बातें हुयी। मगर बातों से कहीं जी भरता है? बार-बार वफ़ा की कसमें खायी गयी, बार-बार वादे हुए। वो नहीं जानते थे कि इन सब बातों का उस ग़रीब कनीज़ पर क्या असर हो रहा था। जैसे कोर्इ उसके सामने उसके क़त्ल की साजि़श कर रहा हो और वो ख़ुद उस साजि़श में शरीक़ हुयी जा रही हो।

लेकिन वो नवाब के अहसानों तले दबी एक बान्दी ही तो थी। उस बक़री की तरह जो जल्लाद की छुरी के आगे ख़्ाुद अपना सर कर देती है। ये कनीज़ भी अपने क़ातिलों के आगे लाचार थी। ये बात और है कि क़ातिल नहीं जानते थे कि उनकी छुरी अपने ही किसी की गर्दन पर चलने वाली थी।

क्रमशः 

लेखक - हुकम सिंह जी 

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